हर एक की ज़िन्दगी में कुछ मीठे पल आते हैं जो यादों में आकर उन्हें हंसाते और रुलाते हैं। उन यादों को हर कोई अमानत की तरह सँजोकर रखना चाहता है ... तो मैं भी इस बार की चिट्ठी में यादों के समुन्दर से कुछ मोती निकलकर आप सबो के सामने रखना चाहता हूँ.... हो सकता है इस बार की चिठ्ठी थोडी लम्बी हो पर पढियेगा जरूर....मौका था- माखन लाल चतुर्वेदी नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ जर्नलिज्म का द्वितीय दीक्षांत समारोह... जहाँ दूसरे पत्रकार की तरह मुझे भी ओफिसिअली इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के मास्टर डिग्री से नवाजा जाना था। समारोह के एक कोने में दोस्तों के साथ बैठे यकायक यादो का मौसम घुमरने लगा और मैं फ्लाशबैक में चला गया। दिल खो गया भोपाल शहर और माखनलाल यूनिवर्सिटी की उन यादो की सतरंगी दुनिया में जहाँ से वापस आने का कभी मन नहीं करता। दो सालों की यादों को चंद शब्दों में समेटना मुमकिन नहीं फिर भी कुछ यादगार लम्हों को तो आप सभी के साथ शेयर कर ही सकता हूँ। "
सात रंगों के शामियाने हैं, दिल के मौसम बड़े सुहाने हैं। कोई तदबीर भूलने की नहीं,याद आने के सौ बहाने हैं।।" हिंदुस्तान के दिल के नाम से मशहूर देश की सांस्कृतिक राजधानी
भोपाल अपनी गंगा जमुनी तहजीब के लिए जाना जाता है। इस शहर की मिट्टी और आबो हवा अपने आगोश में आये हर अजनबी को अपना बना लेती है। १५ अगस्त २००४ को आँखों में नए सपने, नई उम्मीदें लिए चंद भावी पत्रकारों का सफ़र भोपाल आकर थमा और कुछ कदम इस अनजाने शहर में अपना आशियाना ढूँढने लगे। सीनियर्स ने हमारे आने का स्वागत जोरदार जश्न के साथ मनाया और संचार परिसर के आँगन में एक नया रिश्ता बना।
इस शानदार स्वागत के बाद शुरू हुआ संचार का यादगार सफ़र।
क्लास शुरू होते ही
मस्ती की पाठशाला शुरू हो जाती। टीचर क्लास में होते और स्टूडेंट्स
रद्दी के कागज़ पे
कमेंट्स लिखना शुरू कर देते। क्लासेज
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में लगती और लड़के अपना मन कहीं और लगाने की कोशिश करते। दरअसल
ब्रोडकास्ट जर्नलिज्म की नीलम परियो ने इन लड़को का जीना दुश्वार कर रखा था। अब क्या बताये इन लड़को के बारे
में.....सब एक से बढ़कर एक तीसमारखां।
अमित यूनिवर्सिटी का किशन कन्हैया।
समीर की कातिल मुस्कान से नाजनिनो की नींद हराम।(ऐसा मैं नहीं मेरे साथवाले कहा करते थे)।
संतोष का हमेशा बीजी विदाउट बिजनेस की छवि । हर्ष और
विभावसु का साहित्यिक मिजाज़।
राज और
मनीष शुक्ला की मस्ती और
बिनीत की मसखरी अच्छे अच्छो पर भारी थी।
धनञ्जय उर्फ़
डी जे का अंदाज़ सबसे जुदा था। इस लिस्ट में ना आये और दोस्त भी कुछ कम ना थे। सभी अपने फन में माहिर। और हाँ भोलीभाली खुबसूरत चेहरे का अंदाजे बयां भी निराला था।
कौशल को लड़कियों जैसा दिखना कतई मंज़ूर नहीं।
शालिनी,
अनु ,
अमिता और
नविता को लड़कियों की नजाकत पसंत थी।
दीप्ति की भोली मुस्कान।
जीनत की दिलफेंक हंसी,
अंकिता की सादगी,
मेधा का डिफरेंट लुक,
श्वेता और
संयुक्ता की शोख अदायों के सभी कायल थे।
क्लासेज बंक कर हम ज्यादातर मटरगश्ती करते दूसरे
डिपार्टमेंट में मिल जाते।
लाइब्रेरी के अन्दर बैठने की बजाय बाहर हमें ज्यादा सुकून मिलता था।
चाची की चाय और
हकीम भाई के समोसे-बस इनके सहारे पूरा दिन कट जाता। जगहों को भी हमने खूबी के अनुसार नाम दिया था।
ऐ पी आर डिपार्टमेंट, केव्स की
जनकपुरी और
लाइब्रेरी के बाहर के ठिकानो को
लवर्स पॉइंट्स के नाम से जाना जाता था। हर दिन लवर्स पॉइंट्स से बेदखल करने की नाकाम साजिश रची जाती, लेकिन हम भी उस चार गज ज़मीन का मालिकाना हक किसी भी कीमत पर छोड़ने को राजी नहीं थे। दिन हो या रात, अरेरा कॉलोनी की गलियों से निकलकर हम सभी नौसिखिये पत्रकारों की टोली भोपाल शहर की हवाखोरी को निकल जाते।
बड़ी झील, शाहपुरा लेक , गौहर महल, भारत भवन , हर जगह हमारी मौजूदगी दर्ज होती।
बड़ी झील में एक ही नाव पर सैर सपाटा करते और देर शाम तक
भारत भवन के नाटकों की सतरंगी दुनिया में खो जाते।
१० नम्बर स्टाप के मार्केट में हम अपनी हर शाम गुलज़ार किया करते।
जायका पान भंडार के सामने की सीढियों पर बैठकर
हकीम भाई की चाय और समोसे का जायका लिया करते।
खैर वक्त बीता, दिन और हफ्ते गुजरे, महीनो ने भी ठहरने से इंकार कर दिया और देखते ही देखते पूरा एक साल कैसे निकल गया, पता ही ना चला। समय आ गया अपने सीनियर्स के साथ अंतिम रस्म अदायगी की। हमने भी अपने तजुर्बे को जायके का तड़का लगाकर और रंगारंग कार्यक्रम को मनोरंजन की चाशनी में डूबोकर ऐसा समां बांधा की बस सब देखते रह गए। खास कर
नरेन्द्र,
प्रभात और
सुभाष के
मुज़रे ने सीनियर्स
मेम के दिलों पर भी छुरियां चला दी.
सीनियर्स ने अपनी राह पकड़ ली। गुरुकुल में अब एक नया रिश्ता जुड़नेवाला था। लेकिन इस बार
किरदार बदल चुके थे। हमने भी जूनियर्स का खैरमकदम अपने ही अंदाज़ में किया।
किसी का बर्थ डे हो या
दीवाली....होली हो या दशहरा....इसी आँगन में साथ मिलकर
मनाई...।
यूनिवर्सिटी में कुछ
तकनिकी खामियां थी। जिसे चुस्त और दुरुस्त करने की पहल
हम पॉँच दोस्तों ने की। किसी का नाम लेना मुनासिब नहीं क्यूकि संघर्ष के इस दौर में हम
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सभी स्टूडेंट्स एक साथ यूनिवर्सिटी
मैनेजमेंट, प्रशासन और
टीचर्स के विरोध में खड़े थे। हम पांचो के ऊपर
निलंबन की तलवार लटक रही थी।
राज्यपाल से लेकर
राष्ट्रपति तक को हमलोगों ने खतो के द्वारा इन खामियों से अवगत करा दिया था। अन्तः हमारी
एकता की
जीत हुई। उन्हें भी अहसास हुआ की हम सही है और वेलोग गलत। उसी समय मैंने जाना एक पत्रकार को सबसे पहले अपने
हक के लिए लड़ना चाहिए। उसके बाद ही
समाज को सही
दशा और
दिशा दी जा सकती है।
फिर तो
टीचर्स के साथ रिश्ता ऐसा बना की हमें अपना घर कम याद आने लगा। किसी खास का जिक्र करना मुमकिन नहीं सभी टीचर्स अपने काम में सॉलिड। इतनी मस्ती और पढाई का असर साथ साथ दिखता था। हमने यूनिवर्सिटी की पहली
विडियो न्यूज़ मैग्जीन 'केव्स टुडे' की नींव रख दी। हालाँकि काम इतना आसन नहीं था। हमारी लगन और मेहनत का आलम ये था कि हमने क्लास रूम को ही न्यूज़ रूम में तब्दील कर दिया था।
यूनिवर्सिटी के हर छोटे बड़े काम में हमारी हिस्सेदारी बढ़ चढ़ कर होती थी। एनुअल फंक्शन
'प्रतिभा' में जीत के कई रिकार्ड हमारी झोली में आये।
लिखने और
बोलने के अलावे सांसो को रोक देने वाले एक बेहद रोमांचक मुकाबले में
ज्ञानतंत्र को हराकर हमारे
केव्स ने पहली बार
क्रिकेट का खिताब जीता। क्रिकेट के अलावा
बैडमिन्टन में
मेरा उम्दा प्रदर्शन
प्रतिभा को कई मायनों में यादगार बना दिया।
सिंगल्स के साथ
सुभाष के साथ
डबल्स और
देबोश्री के साथ
मिक्स डबल्स की खिताबी जीत कभी भूल नहीं सकता। दोस्तों का गलाफाड़ कर चिल्लाना ,वो पानी की बोतलें तोड़ना और हर पॉइंट्स पर कोर्ट में आकर गले लगाना...कौन भूल सकता है....
फिर आया
गोवा, पुणे और
मुंबई ट्रीप का दौर। दस दिनों का वक्त। लेकिन इन
दस दिनों ने हमें ताउम्र ना भूल पाने की
खुबसूरत यादे दी। ट्रेन का पूरा सफ़र मस्ती में काट देते। जहाँ किसी स्टेशन पे ट्रेन रुकी ,प्लेटफोर्म क्रिकेट का मैदान बन जाता।
वो रेत के घरौंदे बनाना.....एक दूसरे को
छेड़ना... रूठना-मनाना....दोस्तों को
रेत के दरिया में
डूबोना....समुन्द्र की आती-जाती लहरों के साथ देर तक खेलना....ट्रेन हो या क्रूज या फिर बस.......मस्ती का वही आलम......और फिर यादगार लम्हे बन दोस्तों के साथ
कैमरे में कैद हो जाना......कुछ भी नहीं भूल पाए है हम.... लगता है जैसे कल की ही बात हो..... ।
धीरे धीरे वक्त हमारे हाथो से फिसलता चला गया और शहर को अलविदा कहने की तारीख मुकरर होने लगी। आखिरी सेमेस्टर क इग्जाम था। रात रात भर
हबीबगंज स्टेशन के
कैफेटेरिया में बैठकर पढाई होती और अहले सुबह घर लौटते। किताबो से हमेशा दूरी बनाये रखनेवाले को भी लाइब्रेरी के अन्दर आना पड़ा। जूनियर्स ने चुपके चुपके हमारी विदाई की तैयारी कर ली थी। उन्हें भी हमारे
दर्द का अहसास
था.....हमारी ज़िन्दगी का सबसे यादगार पल हमसे रुखसत होने वाला था....इस गुरुकुल में मस्ती के दौर का ये हमारा आखिरी पड़ाव था.....
परीक्षाये ख़त्म हुई और सबकुछ एक झटके में हमसे अलग हो गया। वो
मस्ती छूटी.....
गलियां पीछे रह
गई.....शहर ने भी हाथ छुड़ा लिया.....
दोस्तों का साथ भी अब नहीं रहा......अपनी अपनी
मंजिल की तलाश में सभी देश के कोने कोने में फ़ैल गए.....लेकिन दिलो के अरमान नहीं गए.....वक्त रेत की तरह हाथ से फिसल गया......लेकिन दोस्तों के साथ अनछुए रिश्तो का अंत नहीं हो पाया......
माखनलाल यूनिवर्सिटी आज एक
गगनचुम्बी ईमारत में आ गया है। पूरी यूनिवर्सिटी एक ही छत के नीचे। लेकिन हमारी जान तो
अरेरा इ २२ से
इ २८ की गलियों में बसती
है.....हमारी सांसे इन्ही चारदीवारियों में अटकी है......जिसके
आँगन में कभी हमने भविष्य के सपने बुने थे..... सुख दुःख में एक साथ खड़े थे......इसी आँगन ने इतना कुछ दिया जिसकी बदौलत आज हम सब एक अच्छे मुकाम पर
हैं.....
लेकिन उस आँगन में ना होने का दर्द एक टीस बनकर उभरता
है.......ये कसक उनके दिलो में भी है जिनके ठेले -खोमचो की शान हमसे हुआ करती थी......
चाची की चाय आज भी बनती है लेकिन इसमें वो पहले वाली मिठास नहीं
आती..... इस चाय में उस
आम के पेड़ की छाँव नहीं जिसके नीचे बैठ कर हम
चुस्कियों के साथ
चुहलबाजी और
फ्लर्ट किया करते
थे.....हकीम भाई के समोसे आज भी उतने ही लाजबाव है लेकिन उसकी तारीफ करनेवाले हमारे
मस्ती कि पाठशाला का साथ नहीं रहा.....आज भी
बड़ी झील के उस पार सूरज निकलता है लेकिन उस झील में हम दोस्तों की नाव नहीं
होती......अब तो बस एक दूसरे की यादो में आकर सताते
हैं.......ज़िन्दगी की आपाधापी से फुर्सत के चंद पल निकलकर उन रिश्तो को फिर से जीने की एक बेमानी सी कोशिश कर लेते है.....
लेकिन दिल है की मानता नहीं.....उन्ही चीजों के लिए मचलता है जो उसे मिल नहीं सकती......अब इस नादाँ को कौन समझाये की सिर्फ यादों में रह गए हैं वो लम्हें.....अब दिल बस ढूंढता है
फुर्सत के रात दिन......लेकिन वो कहते हैं ना---
"अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं, रुख हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं..." "इस अंतिम लाइन के माध्यम से मैं अपने दिल के करीब रहने वाले मित्रो से कुछ कहना चाहता हूँ। अगर मेरे इस लेख से किसी की भावना को ठेस लगती है या लगी है तो मैं तहे दिल से क्षमाप्रार्थी हूँ। मेरी ऐसी कोई मंशा नहीं है। मैंने उन दिनों की यादो को जैसा महसूस किया, वैसे ही शब्दों का जामा पहनाया है॥"
धन्यवाद...।