गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

बुलेट पर बैलेट भारी

इस बार की चिट्ठी आई है झारखण्ड से। वहां हो रहे विधानसभा चुनाव २००९ का दूसरा चरण भी पूरा हो गया। खास बात ये रही कि इस चरण की लगभग सभी सीटें उन इलाकों की है जहाँ सरकार की नहीं किसी और की सत्ता चलती है। आप भी पढ़िए कैसा रहा इस चरण का चुनाव।
दूसरे चरण के मतदान में 14 सीटों के लिए ५४ फीसदी मतदान हुआ. २५९ उम्मीदवारों की किस्मत इवीएम में कैद हो गई। नक्सली खौफ और छिटफुट हिंसा के बीच बुलेट पर बैलेट भारी पड़ा। कोई बड़ी घटना का ना होना ये यकीं दिलाता है कि प्रशासन ने सुरक्षा के पुख्ता इन्तजामात किये थे।
इस चरण के सभी विधानसभा सीटें नक्सल प्रभावित थी। नक्सली इलाकों के दहशतजदा लोगों के साथ शान्तिपूर्ण मतदान की उम्मीद बेमानी लग रही थी। लेकिन इन्हीं इलाकों में नयी इबारत लिखी गई। लोकतंत्र की जीत की नयी कहानी। खौफजदा शहर, विस्फोट, आये दिन बंद और अनहोनी की हमेशा आशंका के बीच वोटर उन ताकत पर भारी पड़े जिन्होनें लोकतंत्र को बंधक बना लिया है।
पहले चरण के मतदान की अपेक्षा दूसरे चरण के मतदान प्रतिशत में बढ़ोत्तरी भी ये साबित करती है कि वोटर अपने लोकतांत्रिक अधिकार के इस्तेमाल के लिए घरों से निकल रहे हैं। शान्तिपूर्ण मतदान के साथ वोटिंग प्रतिशत के बढ़ने का मतलब साफ है कि राज्य की जनता एक बेहतर भविष्य और बदलाव की परिकल्पना में जुट गयी है।
तीन चरण का मतदान अभी बाकी है। चुनाव आयोग, प्रशासन और वोटरों को यही उत्साह और हौसला बनाए रखना है. क्योंकि लोकतंत्र का यही तकाजा है कि हम अपना जज्बा बरकरार रखे तभी सपनों के कल को साकार कर सकते हैं। हमें ये भी ध्यान रखना होगा कि तमाम विरोधों के बावजूद वोटरों की कतार और लंबी हो।
आइए राज्य में बदलाव की इस नयी पहल में हम सब भागीदार बने। क्योंकि ये अवाम की आवाज़ और जरुरत है जो विकास को गले लगाने का सपना देख रही है।
इन्हीं विचारों के साथ-
"इस धधकती राज्य की एक लंबी है व्यथा,
पीर कितनी सह रहे हैं क्या किसी को है पता....!"

धन्यवाद... ।

रविवार, 29 नवंबर 2009

चुनावी उदासीनता का मतलब...!

इस बार की चिट्ठी आई है झारखण्ड से। ठण्ड के इस मौसम में जहां चुनावी मौसम गर्म है।चुनाव का पहला चरण ख़त्म और चार चरण बाकी। आइये चीरफाड़ करते हैं पहले चरण का।

पहले चरण में 26 सीटों पर 52 फीसदी मतदान हुआ। नये गठबंधन बने और चुनाव प्रचार को हाई प्रोफाइल बनाने के लिए दिल्ली झारखंड में आ बसी. अखाड़े में दिग्गजों का जमावड़ा और उनकी सभा जनता को अपने पास आने का न्योता दे रही है. बुढिया कांग्रेस के युवा महासचिव, वीजेपी विद डिफरेन्ट के पालनहार, अनुभव का खजाना और मंच से उतरकर आम लोगों जैसा बनने की नौटंकी. साथ ही साथ युवा चेहरों की दस्तक. सियासत के महायोद्धा ने चुनाव में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है.
पर कहां कमी रह गयी? चुनाव आयोग के वायदे और अभियान का क्या हुआ? शायद इसका जवाब मतदाता दे चुके हैं. पिछले चुनाव की तुलना में इस बार मतदान प्रतिशत में भारी कमी , इस बात की गवाही देता है कि नेताओं के उठाये गये मुद्दे पर मतदाता खामोश हैं.
क्या वाकई मुददे है? या मुददों को हवा दी गई है. देश में झारखंड ऐसा पहला राज्य है जो पिछले नौ सालों के मुद्दत में तीन मुख्यमंत्रियों पर भ्रष्टाचार का आरोप देखा. देश के सबसे बड़े घोटाले का आरोप लगा. नक्सलवाद जैसे गंभीर मुददे कहां गायब हो गये?
ये किस्सा लोकतंत्र को बचाने की है. आगे और भी चुनावी चरण बाकी हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि झारखंडवासियों का विश्वास हमारे नेताओं से उठ गया है !
नेताओं के लिए इसी विचार के साथ-
"तुम कलीम चेहरे से दाग पोंछ लो अपने,
वरना कुछ नहीं होगा आईना बदलने से..."

धन्यवाद..

गुरुवार, 26 नवंबर 2009

20 बरस के सचिन

इस बार की चिट्टी आप तक पहुँचाने में काफी वक्त लगा, इसके liye क्षमाप्रार्थी हूँ। मीडिया में वक्त की कमी से जूझ रहा हूँ। खैर इस बार की चिट्ठी है सचिन के नाम जिसने हम सभी देशवासियों को एक बार फ़िर मुस्कुराने का मौका दिया
क्रिकेट अगर स्वर्ग है तो सचिन इस स्वर्ग के भगवान हैं जो अपने कद से बड़े क़ारीगर हैं और अपनी इस कारीगरी से हर भारतीय के चेहरे पर मुस्कान बिखेर देते हैं। सचिन की सबसे बड़ी विशेषता है क्रिकेट के प्रति उनका समर्पण और अधिक से अधिक रन बटोरने की भूख। मैदान में उनकी एकाग्रता और चपलता कठिनाईयों को बगैर कोई भावना दर्शाए मुकाबला करने का ठोस उदाहरण है। अपनी इसी दीवानगी को सच करने में सचिन ने किस तरह भारतीय क्रिकेट में 20 बरस बीता दिया ये सबके बूते की बात नहीं है। विश्व क्रिकेट में रिकॉर्डों के हिमालय पर विराजमान सचिन ने अपने रिकार्डों में एक और हीरा जड़ लिया है। 1989 में सोलह साल और 205 दिन में जब पाकिस्तान के खिलाफ बल्ला लेकर मैदान में उतरे तो किसी को क्या मालूम था कि ये छोटा सा बच्चा लिटिल मास्टर आने वाले समय मास्टर ब्लास्टर का विकराल रूप धारण कर लेगा।
सचिन शायद एक मात्र ऐसे खिलाड़ी हैं जिनके पास क्रिकेट की किताब के सारे शार्टस मौजूद हैं। क्रिकेट सचिन का एक मात्र शौक है उसके साथ ही वह चौबीसों घंटे खाते पीते, सोचते और समय बिताना पसंद करते हैं। क्रिकेटरों का सपना अगर सचिन जैसा बनना है तो, कौन कहता है कि उन्हें ऐसा सपना नहीं देखना चाहिए। अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में अपने आगमन के साथ ही सचिन ने क्रिकेट जगत को जिस तरह चमत्कृत करना शुरू किया. इससे साफ हो गया था कि महज एक खिलाड़ी नहीं बल्कि उनका पदार्पण ही इतिहास निर्माता के रूप में हुआ है।
20 वर्षो के अपने इस सफर में सचिन ने भारतीय क्रिकेट प्रेमियों को वो सबकुछ दिया है जो शायद ही सभी क्रिकेटर दे सके। वैसे भी सचिन के लिए साबित करने को कुछ बचा नहीं है। उम्र, फिटनेंस और प्रतिभा के लिहाज से सचिन अभी 4-5 साल और खेलेंगे। ऐसे में उनके क्रिकेट करियर के कुल रिकॉड्स का अंदाजा लगाना कठिन है। उम्मीद है क्रिकेट जगत का ये नक्षत्र आगे भी अपनी चमक बिखेरता रहेगा और सारी दुनिया को अपने प्रदर्शन से चमत्कृत करता रहेगा.
इसी विचार के साथ-
"पढोगे लिखोगे बनोगे नवाब,
खेलोगे कूदोगे तो भी बनोगे नवाब...."
धन्यवाद्...

शनिवार, 19 सितंबर 2009

एक और मीडिया न्यूज़ पोर्टल का आगाज़

इस बार की चिट्ठी आई है -हाल ही में शुरू हुए मीडिया न्यूज़ पोर्टल से। मीडिया हाउस की बढती तादाद और युवाओं में बढ़ते मीडिया क्रेज को देखते हुए अब मीडिया खबर देने वाले पोर्टल खूब मशहूर हो रहे हैं। बिहार झारखण्ड से एक नए मीडिया न्यूज़ पोर्टल के शुरू होने की खबर है। नाम है "ख़बरदार मीडिया" , जो मीडिया की सभी खबरों और गतिविधियों को पहले और विश्वसनीय तरीके से प्रकाशित करता है। इस पोर्टल की खासियत है युवाओं को तरजीह देना।
ख़बरदार मीडिया के चीफ एडिटर राजीव करूणानिधि ने बताया कि युवा पत्रकार ही देश के भविष्य हैं। इसलिए युवाओं के विचार को महत्त्व देकर ही हम पत्रकारिता को सही दिशा में आगे ले जा सकते हैं। उन्होंने कहा कि मीडिया रोजमर्रा से जुडी हर खबर को लोगों तक पहुंचाता है पर कभी उनकी खबर और खैरियत नहीं मिल पाती है। उन खबरों के पीछे इतनी मेहनत करते है। ख़बरदार मीडिया वो प्लेटफॉर्म जो देश विदेश और तमाम पत्रकार और मीडिया की खबर को सबसे पहले आप तक पहुंचाता है।
वहीं इस मीडिया पोर्टल के एडिटर समीर सृजन का कहना है कि हमने उन युवाओं का भी ख्याल रखा है जो मीडिया में अपना कैरियर बनाना चाहते हैं। मीडिया में उतार चढाव भरे जीवन को हम सीधे-साधे तरीके से उन युवाओं के सामने पेश करते हैं ताकि रंगीन सपने बुननेवाले भोले भाले मीडिया स्टुडेंट किसी हादसे का शिकार ना हो जाये। उन्होंने कहा कि मीडिया का हब या यूं कहे कि मीडिया की राजधानी फिल्म सिटी नॉएडा की तक़रीबन सभी हलचल परोसने के लिए हमने एक नया कोना शुरू किया है, जिसका नाम है सीधे फिल्म सिटी से। इस पोर्टल के कंटेंट की जिम्मेदारी राजीव करूणानिधि और समीर सृजन के कन्धों पर है।
वहीं सीइओ प्रभात प्रखर प्रबंधन का जिम्मा सँभालते हैं। प्रभात पेशे से ऑटोमोबाइल इंजीनियर हैं लेकिन मीडिया के बढ़ते प्रभाव से अपने आप को बचा ना सके और इस क्षेत्र में उतर गए।
सभी राजधानियों और शहरों में ख़बरदार मीडिया के प्रतिनिधि हैं जो मीडिया की पल पल की खबर हम तक पहुंचाते हैं और हम आप तक.
अगर आप इस पोर्टल सम्बंधित किसी भी तरह की जानकारी चाहते है तो khabardarmedia@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।
इस मीडिया न्यूज़ पोर्टल को क्लिक करने के लिए टाइप करें www.khabardarmedia.com

गुरुवार, 27 अगस्त 2009

आज़ादी के मायने...

कविता लिखने में मुझे उतनी ही तकलीफ होती है जितना की रात के अंधेरे में जंगल की सैर करना। आज़ादी के दिन एक मित्र का एस एम् एस आया तो सोचा इसी पर कुछ लिखने की कोशिश की जाए और इस बार कविता लेखन की ओर एक कदम बढाया जाए।
हरारत, हिकारत और तिजारत ही आजाद कौम की आवाज़ नहीं होती। आजाद सपनों की कुलांचे , बेहतर भविष्य के दरवाज़े खोलती है। आज़ादी के इतने सालों के बाद अगर युवा मन बेफ्रिकी में जिये, रोज़गार की कडियाँ जुड़े, अर्थतंत्र बाज़ार की रीढ़ मज़बूत करे, अफसरशाही संवेदनशील बने, हर नागरिक आत्मसम्मान से रहे तो बेहतर आज़ादी के मायने हैं ,वरना आज़ादी बेमानी है। इस बार की चिट्ठी है ऐसे ही हिन्दुस्तानी के लिए जो वाकई कुछ करना चाहते है अपने वतन के लिए।

गाँधी जी के समय की अपनी आज़ादी,
अब बूढी हो चली, जब
बचपना था तो लड़कपन समझ सब भूल गये,
जवानी आई तो सबके होश ही गुम हो गये,
जो दिन रात देते थे दुहाई, की मुट्ठी में है तकदीर हमारी,
जाने उनके सारे सपने कहाँ खो गये,
अपने आपको वतनपरस्त कहने वालों, ओ,
भारत के भाग्य विधाता , जागो,
अगर अब भी अपनी आज़ादी की क़द्र ना करोगे ,
तो एक दिन ऐसा सुनोगे,
की वतन के दुश्मन सारा हिन्दुस्तां ही बेच गये,
और हम अपनी आज़ादी , आज़ादी, आज़ादी को फ़िर से तरसते रह गये.....।
धन्यवाद...।

शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

बिहार की गुलाम पत्रकारिता....

बिहार में विकास के नाम पर एक केऔस नज़र आता है। जगह जगह गड्ढे खुले पड़े हैं। जो परियोजनाएं एक दो साल में पूरी हो जानी चाहिए थी वो लम्बी और लम्बी खींचती जा रही है। ट्रैफिक की समस्या लगातार चिंता का विषय बनती जा रही है। मुजफ्फपुर के बीच बाज़ार में आधा बना पुल विकास योजना को मुंह चिढा रहा है। नीतीश राज में कई ऐसी संस्थाओं और कम्पनियों को भी परियोजना आवंटित की गई जिनके पास दक्षता नहीं थी। आख़िर क्यों? कहीं उन लोगों का सरकार से कोई रिश्ता तो नही...?
रिश्ता सिर्फ़ खून के ही नहीं होते हैं। दिल, दिमाग, मतलब, सियासत और मजबूरी के रिश्ते भी हो सकते हैं। अगर रिश्ते है तो फ़िर मीडिया ने एक निष्पक्ष प्रहरी की तरह उनका खुलासा क्यों नहीं किया ? नीतीश की अंधभक्ति में जुटा मीडिया ख़राब पहलुओं पर सवाल खड़े क्यों नहीं कर रहा है? क्या अचानक बिहार के सभी भ्रष्ट अफसर ईमानदार हो गए हैं? क्या एक ही झटके में वहां की सारी बुराई ख़त्म हो गई है...?
इन सवालों को उठाया है बिहार से ही प्रकाशित एक अख़बार ने। इनकी माने तो बिहार की पत्रकारिता गुलाम हो गई है। इनके इस तर्क के पीछे कुछ ठोस आंकड़े भी है। मसलन सबसे पहले बात करते हैं लालू और नीतीश की मीडिया मैनेजमेंट की। लालू कुछ खास किए बगैर शोर मचने में , ठेठ गँवाई अंदाज़ से लोगो को आकर्षित करने में माहिर हैं। नीतीश कुछ करके भी सही वक्त तक चुप रहना जानते हैं। लालू का कहना है विकास से चुनाव नहीं जीता जा सकता। जबकि नीतीश विकास के मुद्दों पर खुल कर बात करते हैं। यही सोच बिहार में मीडिया को लुभा रही है। शून्य से आगे की गिनती की ओर बढ़ती नीतीश सरकार को तबज्जो देने में मीडिया भी अपने सरोकार भूलती जा रही है। अख़बार का कहना है की जब नीतीश में सामंती प्रवृति लालू से कम नहीं, तो फ़िर राज्य के ज्यादातर पत्रकार उनके प्रवक्ता की भूमिका में क्यों हैं?
ये सही है की विकास को तरसते बिहार में कुछ सकारात्मक बदलाव हुए हैं। लालू और राबडी के शासन काल में गुंडे हीरो बन गए। माफिया राज़ करने लगे। भूख और गरीबी में कोई कमी नहीं आई। पलायन तेज़ी से बढ़ा। नीतीश के आने के बाद इन नकारात्मक प्रवृति में यकीनन कमी आई है। सुरक्षा का अहसास भी बढ़ा है। लेकिन बदलाव उतना अधिक नहीं जितना बढ़ा चढा कर पत्रकार महोदय द्वारा परोसा जा रहा है।
पत्रकारों से पूछना चाहिए की कुछ संगीन अपराधों में कमी का मतलब क्या निकाला और चाहिए की राज्य में शान्ति बहाल हो गई है। अगर उनकी बात सही है तो फ़िर राज्य में हत्या, बलात्कार, लूट के मामले बंद हो गए होंगे? तो जनाब ज़रा इन आंकडों पर गौर फरमाइए। २००५ में राज्य में १०४७७८ आपराधिक मामले दर्ज हुए थे। वही २००८ में ये संख्या बढ़ कर १३०६९३ हो गई। २००५ में हत्या के ३४२३ मामले के मुकाबले २००८ में ये संख्या ३०२९ रही है। हिंसा और बलात्कार के मामले उतने नहीं बढे हैं। जहाँ तक अपराधियों को जेल भेजने का मामला है उसका भी खास पहलू है। लालू राज़ के वक्त आतंक का पर्याय बन चुके अपराधी सलाखों के पीछे हैं। लेकिन इन दिनों इमोशनल हो चुके पत्रकार बन्धु से सवाल है की क्या सभी अपराधी जेल के अन्दर हैं? तो फ़िर अनंत सिंह, प्रभुनाथ सिंह, सूरजभान सिंह, विजय कृष्ण जैसे अपराधी छवि के लोग क्यों आजाद घूम रहे हैं। मीडियाकर्मी क्या आपको नहीं लगता की सज़ा दिलवाने में नीतीश सरकार का रवैया बहुत सलेक्टिव रहा है। उनकी इस कमजोरी पर चोट करने की जगह सिर्फ़ और सिर्फ़ तारीफ करना कहाँ तक उचित सही है...?
मीडिया का काम है शीशे की तरह पारदर्शी होना। कम से कम बिहार की पत्रकारिता पर दाग ना लगाइए। समाज को सही दिशा और दशा का संदेश पहुँचने की बजाय भ्रमित मत कीजिये। कम से कम इस पत्रकारिता को गुलाम मानसिकता से ऊपर उठाइए। मीडिया का चेहरा ढकने की बजाय उसे और मजबूत बनाइये। बिहार की छवि दुनिया में अच्छा बनाइये ना की राज्य सरकार की। हमने तो बस एक पहल की है पत्रकार महोदय के लिए .. कम से कम अपने पत्रकारिता मकसद को ना भूले और वर्षों से चले आ रहे इस संदेश को लोगो के बीच ना जाने दे की " पत्रकारिता मिशन से प्रोफेशन और अब बिजनेस बन चुका है। "
धन्यवाद...।

बुधवार, 10 जून 2009

सितारे गर्दिश में ही सही...मंजिल की जुस्तजू में मेरा कारवां तो है है सर जी...

इस बार की चिट्ठी के केन्द्र में हैं दो ऐसे बच्चे ,जो ख़ुद तो मुफलिसी में जीते हैं लेकिन उनका जज्बा देख आप भी उनके मुरीद हो जायेंगे। इन बच्चों ने मुझमें एक नई उर्जा का संचार किया है और सिखाया कि ख्वाब देखने का हौसला अगर रखते हो तो उसे पाने का जोश कभी कम ना करो। यकीन मानिए इस चिट्ठी को पढने के बाद हम-आप जैसे लोग जो सफलता-असफलता की पटरी के बीच झूलते नज़र आते हैं और एक अदद किनारे के लिए पुरजोर कवायद में लगे रहते हैं। उस सपने को जीने और साकार करने में महती भूमिका निभाएगा।

" अपनी जमीं अपना आकाश पैदा कर ,
कर्मों से एक नया विश्वास पैदा कर ,
मांगने से मंजिल नहीं मिलती ,
मेरे दोस्त अपने हर कदम में विश्वास पैदा कर......।"

कल शाम में मन थोड़ा विचलित था। जी को सबकुछ नागवार सा लग रहा था। पुराने दिनों की याद भी ग्लूकोज का काम नहीं कर रही थी और भविष्य की संभावनाएं चश्में से निकल कर आसपास गोते लगा रही थी। ज़िन्दगी अक्सर हमें दोराहे पर खड़ा करती रहती है। ठीक किसी दरिया की तरह। पर उस पार क्या है ...इसके लिए दरिया को पार करना होता है। ऑफिस से निकलने के बाद कुछ कदम चलते ही सोचा जल्दी से ऑटो लिया जाए और घर पहुंचकर अपनों के बीच तरोताजा हुआ जाए। इंतजार की इस बेला में मैंने देखा सड़क के पार दो बच्चे जूता पॉलिश करने के लिए ग्राहक का बेबसी से राह ताक रहे थे। ना चाहते हुए भी कदम उधर को हो लिए। मैं चुपचाप वहां पड़े पत्थर पर बैठ गया।
" क्यूँ सर जी...जूते चमका दूँ। मेरा छोटा भाई बहुत अच्छा पॉलिश करता है।बोले तो एकदम झक्कास।"
मैंने महसूस किया इन बच्चों की उम्र बमुश्किल १४-१५ के आस पास होगी। लेकिन इनकी आंखों में गजब की चमक थी।
पैर आगे बढाते हुए मैंने पूछा "तेरा नाम क्या है ?"
बन्दूक की गोली की तरह आवाज़ आयी-"मेरा नाम मेवालाल और मेरे भाई का नाम सेवालाल है।" इस बार आवाज़ छोटे भाई की थी जो थोड़ा तेजतर्रार और होशियार लग रहा था। बड़ा भाई समय से पहले ही व्यस्क हो चुका था।
"पूछोगे नहीं ऐसा नाम क्यूँ "
मैंने पूछा "क्यूँ "
अरे इतना भी नहीं जानते सेवा करोगे तो मेवा खाओगे। इसलिए मेरे बापू ने हमारा नाम सेवालाल और मेवालाल रख दिया। है ना इंटरेस्टिंग सर जी।"
मैंने पूछा-"किताब,कॉपी और पेन की जगह हाथों में ये ब्रश क्यूँ"
"क्या करेंगे सर जी, जीने के लिए खाना बहुत जरूरी है और खाने के लिए कमाना। " बड़े भाई ने छोटे का समर्थन करते हुए बात को संभाला -"दरअसल जब से मां- बापू की मौत हुई है तब से जीने के लिए हमलोगों ने काम करना शुरू किया। "अब बैठ के अश्क तो नहीं बहाया जा सकता ना,ज़िन्दगी के और भी रंग है ना सर जी। "
मेरा मन उनकी बातों में रमता जा रहा है और मैं ज़िन्दगी की हकीक़त के और करीब पहुँच रहा था।
मेरे ये पूछने पर कि आख़िर ये जूते पॉलिश करने का धंधा ही क्यूँ,कुछ और भी तो कर सकते थे। "
जवाब सुनिए-"सर जी मेहनत इसलिए करता हूँ कि अपने सपने सच कर सकूँ और जूते इसलिए पॉलिश करता हूँ ताकि अपनी किस्मत के साथ दूसरे कि किस्मत पर से भी धूल हटा सकूँ।" इस रहस्य से पर्दा उठाया बड़े भाई ने। कहा-"कभी हमलोग भी स्कूल जाया करते थे। एक बार टीचर ने बताया कि आदमी की सफलता के कदम जूते से पहचाने जाते है। जब हमें ये दुर्दिन देखना पड़ा तो सोचा क्यूँ ना जूता पॉलिश करके ही अपने सपनों को नई उड़ान दूँ
मैं आश्चर्य में पड़ गया कि इतनी छोटी उम्र में इन बच्चों का ज़िन्दगी और अपने सपनों के बारे में फलसफा शीशे की तरह साफ है और हम आप जैसे जाने कितने लोग ताउम्र गुज़ार देते है इसे समझने में।
सोचने लगा-" अपनी ज़िन्दगी में हर कोई किसी ना किसी को पॉलिश लगाते ही रहते हैं। कोई खुदा को पॉलिश लगाता है तो कोई अपने बॉस को। कोई रिश्ते सुधारने के लिए पॉलिश लगाता है तो कोई रिश्ते बनाने और बिगाड़ने के लिए। कोई आईना बदलने के लिए पॉलिश लगाता है तो कोई आईना तोड़ने
के लिए। हरेक अपनी किस्मत और सितारे को महफूज़ करने में मशगुल रहता है। कभी मेहनत कम पड़ जाती है तो कभी किस्मत दामन छुड़ा लेती है। कभी मज़बूरी से दो चार होना पड़ता है तो कभी लालफीताशाही दीवार बन जाती है।
लेकिन इन सबके बावजूद " मंजिलें उनको ही मिलती है जिनके सपनों में जान होती है। वही हकदार बनते है किनारों के जो बदल देते है बहाव धाराओं के। जब इन बच्चों में इतनी कुव्वत है कि मुफलिसी में भी अपनी आग को जिंदा रखे हुए हैं तो हम-आप जैसे लोग क्यूँ नहीं। क्यूँ की कम से कम मंजिल की जुस्तजू में कारवां तो है जरुरत है बस एक सही मौके की. एक बार मिल गया तो समझो मंजिल मिल गई।
"कहाँ खो गए......। सितारे अभी गर्दिश में हैं, मेरा भी वक्त बदलनेवाला है सर जी।
मैंने पूछा-"तुझे कैसे मालूम।"
तपाक से छोटे ने जवाब दिया-"दिल चाहता है फ़िल्म देखी थी। उसी में है ना 'सितारे भी तोड़ लायेंगे हमें है यकीं।'बड़े ने छोटे को थपकी देते हुए कहा " मजाक कर रहा है सर जी....। दरअसल बापू कहा करते थे "कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। और हमलोग कोशिश के साथ मेहनत भी करते हैं। वो भी पूरी ईमानदारी से...
"लो सर जी। आपका जूता चमक गया और देखना आपकी किस्मत का सितारा भी बहुत जल्द चमक जाएगा।" उसकी इस बात से तबीयत हरी भी हो गई और थोड़ा ताज्जुब भी की इसे कैसे मालूम की मेरा और इसका सितारा एक जैसा ही है। भले ही सामनेवालों को दिखता नहीं है।
मैंने जेब से दस का नोट निकाला और कहा-"रख लो इसे।"
तो बड़े ने बड़ी ही शालीनता से कहा-"नहीं सर जी मेरा तो पांच रुपैया ही बनता है। मैं तो पांच ही लूँगा।आप ही पांच रख लो । कभी धूप में निकलोगे तो काम आयेंगे और ऐसे ही पांच पांच से ना जाने कितने रुपैये बन जायेंगे. छोटे ने भी हाँ में हाँ मिलाया "अगली बार भी मेरी दूकान पर आना जूता पॉलिश करवाने को। क्या पता इन्हीं पांच-पांच रुपैये से हमारा सपना भी पूरा हो जाए और अपनी बड़ी सी दूकान हो जाए।" मैंने उसे धन्यवाद के साथ उसकी सफलता की दुआ की और ऑटो में बैठ गया।
ओझल होती उनकी आँखें मानों मुझसे कह रही हो...
"चमकने वाली है तहरीर मेरी किस्मत की,
कोई चिराग की लौ को जरा सा कम ना कर दे...."
रास्ते भर मैं सोचता रहा जब ये बच्चे अपनी मंजिल पाने के लिए इतना कुछ कर सकते हैं तो हम क्यूँ नहीं।माना की आज हमारे पास कुछ नहीं। लेकिन इस सोच में तो रहता हूँ की मेरी इब्तिदा और इंतिहा क्या है। सितारे गर्दिश में ही सही, सितारे बुलंद करने की जुगत में हमेशा भटकता तो रहता हूँ। लोगो को लग सकता है की हम क्या कर रहे हैं। अगर हमें विश्वास है अपनी मंजिल पाने की तो क्या गम है। राह में कितने ही सिलवटें हो, उसे तान कर एक दिन अपनी जीत का परचम लहरायेंगे, ये विश्वास जिस दिन हो गया समझिये आप सफल हो गए। मुझे तो पक्का यकीन हो गया है।
क्या आपके भी सितारे गर्दिश में हैं? तो क्या आपने अपने कदम में ये विश्वास पैदा किया या नहीं....? क्यूंकि आपका भी वक्त बदलनेवाला है सर जी .....।

धन्यवाद.....।

मंगलवार, 12 मई 2009

फ़िर दागदार हुआ चौथा खम्भा...

लोकसभा चुनाव में व्यस्त रहने के कारण इस बार की चिट्ठी में थोडी देरी हुई। माफ़ी चाहूँगा। इस चुनाव में बहुत सारे रंग देखने को मिले। ये रंग जनता जनार्दन के साथ-साथ राजनैतिक दल, राजनेता, गैर सरकारी संगठन और मीडिया का रहा। इन सब रंगों में से एक रंग अप लोगो के सामने रख रहा हूँ। शायद कहीं पढ़ा होगा या देखा भी होगा। इस बार की चिट्ठी में जिक्र है चौथे खम्भे का एक काला रूप।
भारत में भ्रष्टाचार का जो गठजोड़ है, उसमें पत्रकार दो तरह की भूमिका में नज़र आते है। कुछ राष्ट्रीय अख़बार सतर्क सैनिक की भूमिका निभाते है और सार्वजानिक हित में गड़बडियों को उजागर करते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी है जो असरदार विज्ञापनदाताओं के दबाव में ख़बर को ही दबा देते हैं। ये काम इतनी सफाई से की जाती है है कि पाठक को साफ तौर पे पता नहीं चलता है कि जो वो पढ़ रहा है, वो ख़बर है या विज्ञापन।
ताज़ा वाक्या चंडीगढ़ से लोकसभा चुनाव के स्वतंत्र उम्मीदवार अजय गोयल के साथ हुआ है। आपने उनके बारे में ना के बराबर सुना होगा। चंडीगढ़ कि जनता भी उनको ज्यादा नहीं जानती। जब उनकी चुनावी गतिविधियों को अख़बार में छपने की बात आती है तो टका सा जवाब मिलता है- प्रेस में कवरेज़ चाहिए तो पैसे देने होंगे।
अभी तक उनसे करीब दस लोगों ने इसके लिए संपर्क किया है। इसमे से कुछ दलाल और पब्लिक रिलेशन मैनेजर थे, जो अख़बार मालिकों की तरफ़ से उनसे मिले थे। इसके अलावा कुछ रिपोर्टर और संपादक भी मिले। सबका संदेश साफ था कि अगर वे भुगतान करेंगे तो उनके बारे में छपेगा। जी नहीं, ये विज्ञापन की बात नहीं है, ये भुगतान, वे खबरों के लिए चाहते हैं।
एक दलाल ने चार अख़बारों में तीन हफ्ते तक कवरेज़ के लिए दस लाख रुपये मांगे। चंडीगढ़ के एक अख़बार के संवाददाता और फोटोग्राफर ने उनकी खबरें छपने के लिए डेढ़ लाख रुपये कि मांग की। इसके बाद एक और संवाददाता ने तीन लाख रुपये की मांग की और पाँच अख़बारों में दो हफ्ते तक कवरेज़ का वादा किया। उनसे मिलने वाले ये सब लोग राष्ट्रीय हिन्दी या फ़िर क्षेत्रीय अख़बारों के थे। हद तो तब हो गई जब इसका जायजा लेने के लिए की 'आखिर होता क्या है' , उन्होंने झूठे दावों वाली एक प्रेस विज्ञप्ति तैयार की। कुछ ऐसी जगहों पर चुनाव अभियान चलाने का दावा किया, जहाँ वे कभी गए तक नहीं। अख़बार में सब जस का तस छप गया। अपने पूरे अभियान में उन्होंने एक चीज़ कभी भी, कहीं भी नहीं देखी - वो थी कोई संवाददाता।
चिंता लाजिमी है क्यूंकि चौथा खम्भा भी गुनाहगार की कतार में खड़ा है? ये बहुत हताश और निराश करने वाला है। साक्षरता और शिक्षा का क्या अर्थ जब लोगों को असली खबरें , खोजी रपटें ही पढने को नहीं मिले। शक-शुबहे करते और सवाल की आग में लपेटते पत्रकार ही ना हो। इससे भी बुरी बात ये है कि संवाददाता, संपादक और अख़बारों के मालिक लोकतंत्र की प्रक्रिया को ही बंधक बना ले। हर तरह से स्वतंत्र प्रेस लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण और जीवंत हिस्सा होती है। एक भ्रष्ट प्रेस लोकतंत्र की सडन का एक लक्षण भी है और इसकी भूमिका भी।
(वाल स्ट्रीट जर्नल से साभार )

धन्यवाद।

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

अनुभव की अभिलाषा...

पिछली चिट्ठी में मैंने माखनलाल के दिनों की यादों को संजो कर आप सभी को लिखा था। इस बार की चिट्ठी भी उसी से मिलती जुलती है लेकिन इस बार किरदार, स्थान और परिस्थिति बदली हुई है। दरअसल इस चिट्ठी को आप तक पहुँचाने का श्रेय है - देव प्रकाश जी का। आप निजी खबरिया चैनल में हैं और मेरे अच्छे मित्र हैं। बहुत दिनों बाद कल अचानक दूरभाष पर बातचीत के दौरान पुराने चैनल की याद ताज़ा हो गई। खबरिया चैनल के अन्दर तरह -तरह की स्टोरी चलते रहती है ।जिसमे ड्रामा , इमोशन ,एक्शन और ट्रेजेडी के साथ आपको हिन्दीं फिल्मो की वो सारी मसाला मिलती है जो आम लोग नहीं देख पाते। वैसे हम जैसे टीवी पत्रकार के लिए ये रोज़मर्रा की जिन्दगी का एक हिस्सा भर है। ये कहानी है "अनुभव की तलाश अभिलाषा की...." जो बार बार उसके पास आकर चाँद की तरह बादलों में छिप जाती है। आप भी इस चिट्ठी को पढिये और अनुभव एवं अभिलाषा के रंगों की अनुभूति कीजिये।
चैनल की चाल बदल चुकी थी। कुछ सुस्त कदम और कुछ तेज़ कदम राहें चलते हुए नए दिग्ज्जों ने आकर मोर्चा संभाल लिया था। कुछ पुरानी चावलों ने मैदान छोड़ दिया थाअब सब कुछ नया था। रिसेप्शनिस्ट की मुस्कान, लॉन की हरियाली, कैन्टीन का गुलाबजामुन और न्यूज़ रूम में शार्ट-कट में फुदकती तितलियाँ । ख़बरों पर बहस न्यूज़ रूम, कॉरिडोर और केबिनों में भटकती हुई अक्सर लॉन में पहुँच कर धुआं-धुआं हो जाती थी। दूसरे चैनलों की तरह यहाँ भी न्यूज़ को डेस्कों की दराज़ में जगह दे दी गई थी। उन दराजों से राजनीति , खेल, कला, जिन्दगी और क्राईम की खबरें वक्त वे-वक्त बाहर आती और एक उम्मीद के साथ लोगो के घरों तक पहुँच कर पसर जाती थी।
न्यूज़ रूम के एक ऐसे ही डेस्क पे बैठा था -अनुभव। कामयाबी और अपने अनुभव के बुखार में तप कर उसका चेहरा खिला खिला मगर पीला दिखाई देता था। क्राइम की ख़बरों पर हर दिन तरह-तरह के कसरत करने वाले अनुभव के बारे में प्रचारित था, की वो बचपन से ही अनुभवी है। वो कवि था लेकिन उसे ज़बरदस्ती क्राइम डेस्क पर भेजने के पीछे उसकी योग्यता मुख्या वज़ह थी। वह ना सिर्फ़ तिल का ताड़ बना सकता था, बल्कि जरुरत पड़े तो उस ताड़ में से ताड़ी भी निकाल सकता था। इन चार सालों में अनुभव क्राइम और कविता को साथ साथ लेकर चलने की कोशिश कर रहा था, लेकिन कोई कविता नही लिखी थी। या यूँ कहें की कोई नई कविता नहीं मिली
अनुभव ने घड़ी देखी । कब के बारह बज चुके थे। समय घड़ी से निकल कर उसके चेहरे पर चस्पा हो गया था। जब कभी उसके चेहरे पर बारह बजते, वो अपना ई-मेल चेक करने लगता । लेकिन उसकी नज़रें बार-बार घड़ी की ओर उठ जाती थी। दरअसल उसे एक लड़की का इंतज़ार था, जो क्राइम डेस्क पर इंटर्नशिप के लिए आई थी। क्या वो नही आएगी ? इस सवाल ने गुलाब जैसे खिले उसके चेहरे को कैक्टस में बदल दिया। वो सीट से उठा, अनमने ढंग से टीवी के स्क्रीन पे नज़रे टिका दी। फैशन परेड में मॉडल बिल्ली की चाल चल रही थी। उसे लगा एक मॉडल की टांगे स्किन टेस्ट के लिए स्क्रीन से बाहर उछल आएगी। टांगो पर उसकी कल्पना और कविमन रफ़्तार पकड़ती, इससे पहले एक सुरीली आवाज़ उसके कानों से जा टकराई ।
"सर मैं आ गई॥ " नज़रों का कैमरा पैन करते ही वह दिलबाग हो गया। बगल में खूबसूरत हसीना थी। सामने स्क्रीन और मुंह में पान मसाला। वह चाह कर भी कुछ बोल नही पा रहा था। और ना चाहते हुए भी टाइप किए जा रहा था। " आप बहुत अच्छी स्क्रिप्ट लिखते है, हरिओम रस बता रहे थे.." लड़की ने लिपस्टिक और होठों के बीच तालमेल बिठाते हुए कहा। अनुभव को सूझ नही रहा था की वो क्या करे ? सब कुछ जानते हुए भी ट्रेन के यात्री की तरह बात की शुरुआत उसने नाम पूछने से की । "अभिलाषा, अभिलाषा कोहिली"
मोहतरमा न्यूज़ रूम की गहमा गहमी और चिल्ल- पों से घबराई हुई थी। एक ब्रेकिंग न्यूज़ से चैनल के तथाकथित सूरमाओं के बीच ज़बरदस्त उत्साह था। वे लोग कभी पीसीआर की तरफ़ लपक रहे थे तो कभी असैनमेंट डेस्क के पास इस तरह जमा हो रहे थे जैसे चौराहे पर कोई बन्दर नाच हो रहा हो। ये सीन और ऑफिस अभिलाषा के लिए बिल्कुल नया था ।
" सर मुझे क्या करना होगा, मैं काम सीखना चाहती हूँ सर....."अनुभव ने मन ही मन सोचा।' पोस्ट प्रोडक्शन ' में लगा दिया तो ये हमेशा मेरे पीछे ही रहेगी। वो कुछ बोले ही उस दिन के प्रोग्राम का प्रोमो बनवाने चला गया। उसका प्रोमो प्रेम पूरे ऑफिस में मशहूर था। अनुभव की कुर्सी खाली और बगल वाली कुर्सी पर ये नयी मसककली....ये अनोखा दृश्य ऑफिस में घुसते ही अजय ने सेकंड के दसवें हिस्से में अपनी आंखों में उतारकर अपनी सीट पर बैठ गया। बीच में लकड़ी की छोटी सी दीवार थी। एक तरफ़ अजय तो दूसरी तरफ़ उसके शब्दों में मटककली.... अजय के बारे में कहा जाता था की वो रिपोर्टर्स का रिपोर्टर है। इस चैनल में वो विशेष संवाददाता था। ये बात दीगर थी की पिछले छः महीने से उसने एक भी रिपोर्ट फाइल नही की थी। वो अनुभव की तरह कविताएँ लिखने में उसकी कोई दिलचस्पी नही थी। हाँ ये अलग बात थी की कविताओं को देखकर ग़ज़ल पढने और लिखने का मन करने लगता था। इसलिए सामने खूबसूरत ग़ज़ल को देखकर वो भावुक हो उठा था और अपने पके बालों को झूठलाने का तर्क ढूंढने लगा
नाजनीन को देखकर उसे मंजीत कौर टिवाना की एक कविता याद आ गई- " कुछ लड़कियां लम्बी रूट की बस होती हैं, जो आसपास की सवारी नही उठाती-" ये किस तरह की लड़की है। वो उससे बातें करने को कुलबुलाने लगा।
" आप इंटर्नशिप के लिए आई हैं ? क्या आप को रिपोर्टिंग में इंटेरेस्ट नही? "
अजय के इस सवाल को अगर सिर्फ़ अभिलाषा ने सुना होता तो शायद कोई बात नही , लेकिन अनुभव ने भी सुना और उसका दिल डूबने उतरने लगा। अनुभव अब तक कुंवारा था। लड़कियों से दोस्ती के मामले में उसका अनुभव चैनल के दूसरे सूरमाओं की तरह रफ्तार नहीं पकड़ी थी। जब कभी दोस्ती की इच्छा होती ,बिल्ली की तरह कोई सीनियर्स उसका रास्ता काट देता था। उसने दीवार की तरह प्रतिज्ञा ली "इस बार ऐसा नहीं होगा। अभिलाषा क्राइम डेस्क पर ही काम करेगी। कुछ भी हो जाए।"
अभिलाषा 'सास, बहू और साजिश ' जैसे किसी स्क्रिप्ट पढने में व्यस्त थी। हर दो तीन मिनट के बाद वो अनुभव की तरफ़ देख लेती थी। अनुभव को उसकी आँखों में एक अजीब किस्म का तिलश्म नज़र आया। ना वो आँखें झील सी थी ना वो कमल की तरह। उसकी आंखों में अनुभव को एक साथ सरसों के फूल और जलते हुए मकान नज़र आए। ये लड़की प्यार के काबिल है।
खैर समय बीता। मुंबई के नटवरलाल में उलझी अभिलाषा और एक कातिल बीवी के फुटेज देखने में व्यस्त अनुभव को इसका अहसास तक नहीं हो पाया की अभिलाषा चैनल के बड़े लोगों के चर्चाओ में ब्रेकिंग न्यूज़ की तरह शुमार हो चुकी थी॥ "अभिलाषा... अभिलाषा...अभिलाषा.."न्यूज़ रूम में किसी लड़की का इतना शोर...और अब तक वो उस लड़की का दीदार नहीं कर पाया हो। सोचते हुए अनुराग के मुंह का स्वाद कसैला हो गया। वो अभी अभी एंकरिंग करके स्टूडियो से न्यूज़ रूम आया था। इस वक्त क्राइम डेस्क पर कोई नहीं था। "कहाँ गए सब के सब।" जवाब दिया अजय ने-" कैंटीन में" अनुराग को अचानक याद आया की सुबह से उसने कुछ नही खाया। पत्रकारों की परम्परा रही है की वो हर उस काम को होते हुए देख इर्ष्या से भर जाते है, गए-गए वो नहीं कर पाते। अनुराग पर इर्ष्या का वायरस आ चुका था । उसने अनुभव की ओर रहस्मय अंदाज़ से देखते हुए कहा-
" सुना इस बार क्राइम की टीआरपी गिर गई ?" अभिलाषा से अनुभव का अपने शौर्य गाथा का पहला अध्याय ख़त्म भी नहीं हुआ था की अनुराग ने टीआरपी की बन्दूक तान दिया था। कोल्ड ड्रिंक के सिप, अपनी वीर गाथा और अभिलाषा की मादक मुस्कान के बीच टीआरपी को लेन के मूड में कतई नहीं था अनुभव।
टीआरपी पर बहस करते करते अनुभव परमहंस की उस अदा तक पहुँच गया था , जहाँ पहुँच कर मान-अपमान , जय-पराजय, सवाल-जवाब , राग-विराग सब एक मुस्कान में तब्दील हो जाता है। अनुभव कोल्ड ड्रिंक की सिप लेता रहा और मुस्कुराता रहा। एंकर के पास किसी सवाल का जवाब ना हो और फ़िर प्रोडयूशर की तरफ़ से कुछ लिखा नहीं आए तो अक्सर एंकर के लिए दुविधा की स्थिति बन जाती है। अनुराग की समझ में नहीं आ रहा था की बातचीत का सिलसिला कहाँ से शुरू करें। दरअसल वो टीआरपी के बहाने अभिलाषा के टेबल पर घुसपैठ करना चाहता था। अनुभव को डर था की कहीं अनुराग ना पानी पटा ले। डर जायज़ था। पिछले चार सालों से वो शहर में एक अदद कंधे की तलाश में भटक रहा था। वो अपने दो कमरे के फ्लैट को घर बनाना चाहता था। प्यार के मामले में कामयाबी को वो तकदीर का तमाशा मान चुका था। जिस तरह खाना अकेले चटनी या आचार से रोज नहीं खाया जा सकता ,उसी तरह ज़िन्दगी भी अकेले मांगों क बैनर लटकाए नहीं चलायी जा सकती। इस तरह वो अभिलाषा को अपने अभियान में शामिल और अपने सपनों में जगह दे चुका था।
एडिट होने जा रही एक स्टोरी के विजुअल्स में ग्लिच की सूचना मिलते ही अनुभव तीर की तरह एडिट रूम की तरफ भगा। अब तक खड़े अनुराग ने अनुभव की खाली कुर्सी को तलवार की तरह खींच लिया। कैंटीन में अच्छी खासी भीड़ थी। शोर भी बहुत था। फिर भी अभिलाषा और अनुराग का समवेत ठहाका सबने सुना। पास के टेबल पर अंतरा ने अनुराग को ये भी कहते हुए सुना "why dont u try for anchoring..." एंकरिंग का ऑडिशन वो जब चाहे करवा सकता है.." लड़की देखी और लार टपकना शुरू। मन ही मन एक भद्दी गाली से अनुराग का स्वागत करते हुए अपनी चाय ख़त्म की और बाहर निकल गयी। जब दोनों कैंटीन से बाहर निकल रहे थे तो अनुराग का सर सिकंदर की तरह ऊँचा था और अभिलाषा के चेहरे पर उमराव जान की अदा।
दूसरे दिन अनुभव देर से ऑफिस आया। अभिलाषा ऑफिस में है और पीछे बैठी है। इस ब्रेकिंग न्यूज़ से अनुभव का दिल बैठ गया। उसकी नज़र अजय और अनुराग पर गयी। दोनों हंस हंस कर बातें कर रहे थे। अनुभव का खून सुख गया। उसे समझते देर ना लगी की एक बार फिर सीनियर्स की साजिश का शिकार हो चुका है।
फिर अचानक अभिलाषा गायब हो गयी। महीनों तक उसका पता नहीं चला। आठ महीने बाद जब वो चैनल में वापस आई तो उसके पंख जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। एक ने बताया की उसने एक महँगी कार खरीद ली है। दूसरे ने सूचना दी की उसी कंपनी के दूसरे चैनल में वो एंकर बन गयी है। किसी ने बम फोड़ा की उस चैनल में अभिलाषा की धूम मची है... कई टुकड़ों में बँट चुके अपने जिस्म को लिए-दिए अनुभव किसी तरह न्यूज़ रूम के एक कोने में सोफे पर धप्प से पसर गया।
उसे गुस्सा आ रहा था- किस पर,ये तय करना मुश्किल था। " दिल्ली खतरनाक है..." उसने सोचा और उसका मन बलिया पहुँच गया... अपने घर, अपने परिवार, अपने बचपन के दोस्तों की धुंधली यादों में॥ वो भावुक हो उठा। उसकी आँखें भर आई। उसे वो मशहूर शेर याद आने लगी---
"अब के बारिश में फिर ये शरारत मेरे साथ हुई,
मेरे घर छोड़ के सारे शहर में फिर बरसात हुई
..."
उसे पता भी ना चला कब उसके डेस्क का एक ट्रेनी जर्नलिस्ट उसके सामने आ खडा हुआ था और बता रहा था की कैसे उसकी छुट्टियों के पैसे काट लिए गए...बार बार कहने पर भी किसी ने कुछ नहीं किया। अचानक अनुभव बौखला गया--" साले जिस ऑफिस में कटी उँगलियों पर कोई मू(?) वाला ना हो,वहां तू मदद की बात करते हो। अबे गधे की औ(?) तुमसे कितनी बार कहा है ज्यादा ...(?)....(?)...अगली बार मेरे पास फटके तो उठाकर न्यूज़ रूम के डस्टबीन में पान की पीक की तरह फेंक दूंगा।
"गिलौरी खाया करो गुलफाम॥जुबां काबू में रहती है। कंधे पर हलकी सी धौल के साथ संकेत में छिपी सांत्वना के साथ ये थे मिश्र जी...वो कुछ और बुदबुदाते हुए आगे निकल गए --
" कहीं मत जाइएगा...एक छोटे से ब्रेक के बाद हम फिर हाज़िर होंगे...मुहब्बत की इस दर्द भरी अधूरी दास्तां के साथ।जिसमे एक बार फिर होंगी अनुभव की एक नयी अभिलाषा...."
धन्यवाद....।

शुक्रवार, 13 मार्च 2009

कोई लौटा दे वो प्यारे प्यारे दिन.....

हर एक की ज़िन्दगी में कुछ मीठे पल आते हैं जो यादों में आकर उन्हें हंसाते और रुलाते हैं। उन यादों को हर कोई अमानत की तरह सँजोकर रखना चाहता है ... तो मैं भी इस बार की चिट्ठी में यादों के समुन्दर से कुछ मोती निकलकर आप सबो के सामने रखना चाहता हूँ.... हो सकता है इस बार की चिठ्ठी थोडी लम्बी हो पर पढियेगा जरूर....
मौका था- माखन लाल चतुर्वेदी नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ जर्नलिज्म का द्वितीय दीक्षांत समारोह... जहाँ दूसरे पत्रकार की तरह मुझे भी ओफिसिअली इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के मास्टर डिग्री से नवाजा जाना था। समारोह के एक कोने में दोस्तों के साथ बैठे यकायक यादो का मौसम घुमरने लगा और मैं फ्लाशबैक में चला गया। दिल खो गया भोपाल शहर और माखनलाल यूनिवर्सिटी की उन यादो की सतरंगी दुनिया में जहाँ से वापस आने का कभी मन नहीं करता। दो सालों की यादों को चंद शब्दों में समेटना मुमकिन नहीं फिर भी कुछ यादगार लम्हों को तो आप सभी के साथ शेयर कर ही सकता हूँ।
"सात रंगों के शामियाने हैं,
दिल के मौसम बड़े सुहाने हैं।
कोई तदबीर भूलने की नहीं,
याद आने के सौ बहाने हैं।।"
हिंदुस्तान के दिल के नाम से मशहूर देश की सांस्कृतिक राजधानी भोपाल अपनी गंगा जमुनी तहजीब के लिए जाना जाता है। इस शहर की मिट्टी और आबो हवा अपने आगोश में आये हर अजनबी को अपना बना लेती है। १५ अगस्त २००४ को आँखों में नए सपने, नई उम्मीदें लिए चंद भावी पत्रकारों का सफ़र भोपाल आकर थमा और कुछ कदम इस अनजाने शहर में अपना आशियाना ढूँढने लगे। सीनियर्स ने हमारे आने का स्वागत जोरदार जश्न के साथ मनाया और संचार परिसर के आँगन में एक नया रिश्ता बना।
इस शानदार स्वागत के बाद शुरू हुआ संचार का यादगार सफ़र। क्लास शुरू होते ही मस्ती की पाठशाला शुरू हो जाती। टीचर क्लास में होते और स्टूडेंट्स रद्दी के कागज़ पे कमेंट्स लिखना शुरू कर देते। क्लासेज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में लगती और लड़के अपना मन कहीं और लगाने की कोशिश करते। दरअसल ब्रोडकास्ट जर्नलिज्म की नीलम परियो ने इन लड़को का जीना दुश्वार कर रखा था। अब क्या बताये इन लड़को के बारे में.....सब एक से बढ़कर एक तीसमारखां। अमित यूनिवर्सिटी का किशन कन्हैया। समीर की कातिल मुस्कान से नाजनिनो की नींद हराम।(ऐसा मैं नहीं मेरे साथवाले कहा करते थे)। संतोष का हमेशा बीजी विदाउट बिजनेस की छवि । हर्ष और विभावसु का साहित्यिक मिजाज़। राज और मनीष शुक्ला की मस्ती और बिनीत की मसखरी अच्छे अच्छो पर भारी थी। धनञ्जय उर्फ़ डी जे का अंदाज़ सबसे जुदा था। इस लिस्ट में ना आये और दोस्त भी कुछ कम ना थे। सभी अपने फन में माहिर। और हाँ भोलीभाली खुबसूरत चेहरे का अंदाजे बयां भी निराला था। कौशल को लड़कियों जैसा दिखना कतई मंज़ूर नहीं। शालिनी, अनु , अमिता और नविता को लड़कियों की नजाकत पसंत थी। दीप्ति की भोली मुस्कान। जीनत की दिलफेंक हंसी, अंकिता की सादगी, मेधा का डिफरेंट लुक, श्वेता और संयुक्ता की शोख अदायों के सभी कायल थे।
क्लासेज बंक कर हम ज्यादातर मटरगश्ती करते दूसरे डिपार्टमेंट में मिल जाते। लाइब्रेरी के अन्दर बैठने की बजाय बाहर हमें ज्यादा सुकून मिलता था। चाची की चाय और हकीम भाई के समोसे-बस इनके सहारे पूरा दिन कट जाता। जगहों को भी हमने खूबी के अनुसार नाम दिया था। ऐ पी आर डिपार्टमेंट, केव्स की जनकपुरी और लाइब्रेरी के बाहर के ठिकानो को लवर्स पॉइंट्स के नाम से जाना जाता था। हर दिन लवर्स पॉइंट्स से बेदखल करने की नाकाम साजिश रची जाती, लेकिन हम भी उस चार गज ज़मीन का मालिकाना हक किसी भी कीमत पर छोड़ने को राजी नहीं थे। दिन हो या रात, अरेरा कॉलोनी की गलियों से निकलकर हम सभी नौसिखिये पत्रकारों की टोली भोपाल शहर की हवाखोरी को निकल जाते। बड़ी झील, शाहपुरा लेक , गौहर महल, भारत भवन , हर जगह हमारी मौजूदगी दर्ज होती। बड़ी झील में एक ही नाव पर सैर सपाटा करते और देर शाम तक भारत भवन के नाटकों की सतरंगी दुनिया में खो जाते। १० नम्बर स्टाप के मार्केट में हम अपनी हर शाम गुलज़ार किया करते। जायका पान भंडार के सामने की सीढियों पर बैठकर हकीम भाई की चाय और समोसे का जायका लिया करते।
खैर वक्त बीता, दिन और हफ्ते गुजरे, महीनो ने भी ठहरने से इंकार कर दिया और देखते ही देखते पूरा एक साल कैसे निकल गया, पता ही ना चला। समय आ गया अपने सीनियर्स के साथ अंतिम रस्म अदायगी की। हमने भी अपने तजुर्बे को जायके का तड़का लगाकर और रंगारंग कार्यक्रम को मनोरंजन की चाशनी में डूबोकर ऐसा समां बांधा की बस सब देखते रह गए। खास कर नरेन्द्र, प्रभात और सुभाष के मुज़रे ने सीनियर्स मेम के दिलों पर भी छुरियां चला दी.
सीनियर्स ने अपनी राह पकड़ ली। गुरुकुल में अब एक नया रिश्ता जुड़नेवाला था। लेकिन इस बार किरदार बदल चुके थे। हमने भी जूनियर्स का खैरमकदम अपने ही अंदाज़ में किया। किसी का बर्थ डे हो या दीवाली....होली हो या दशहरा....इसी आँगन में साथ मिलकर मनाई...
यूनिवर्सिटी में कुछ तकनिकी खामियां थी। जिसे चुस्त और दुरुस्त करने की पहल हम पॉँच दोस्तों ने की। किसी का नाम लेना मुनासिब नहीं क्यूकि संघर्ष के इस दौर में हम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सभी स्टूडेंट्स एक साथ यूनिवर्सिटी मैनेजमेंट, प्रशासन और टीचर्स के विरोध में खड़े थे। हम पांचो के ऊपर निलंबन की तलवार लटक रही थी। राज्यपाल से लेकर राष्ट्रपति तक को हमलोगों ने खतो के द्वारा इन खामियों से अवगत करा दिया था। अन्तः हमारी एकता की जीत हुई। उन्हें भी अहसास हुआ की हम सही है और वेलोग गलत। उसी समय मैंने जाना एक पत्रकार को सबसे पहले अपने हक के लिए लड़ना चाहिए। उसके बाद ही समाज को सही दशा और दिशा दी जा सकती है।
फिर तो टीचर्स के साथ रिश्ता ऐसा बना की हमें अपना घर कम याद आने लगा। किसी खास का जिक्र करना मुमकिन नहीं सभी टीचर्स अपने काम में सॉलिड। इतनी मस्ती और पढाई का असर साथ साथ दिखता था। हमने यूनिवर्सिटी की पहली विडियो न्यूज़ मैग्जीन 'केव्स टुडे' की नींव रख दी। हालाँकि काम इतना आसन नहीं था। हमारी लगन और मेहनत का आलम ये था कि हमने क्लास रूम को ही न्यूज़ रूम में तब्दील कर दिया था।
यूनिवर्सिटी के हर छोटे बड़े काम में हमारी हिस्सेदारी बढ़ चढ़ कर होती थी। एनुअल फंक्शन 'प्रतिभा' में जीत के कई रिकार्ड हमारी झोली में आये। लिखने और बोलने के अलावे सांसो को रोक देने वाले एक बेहद रोमांचक मुकाबले में ज्ञानतंत्र को हराकर हमारे केव्स ने पहली बार क्रिकेट का खिताब जीता। क्रिकेट के अलावा बैडमिन्टन में मेरा उम्दा प्रदर्शन प्रतिभा को कई मायनों में यादगार बना दिया। सिंगल्स के साथ सुभाष के साथ डबल्स और देबोश्री के साथ मिक्स डबल्स की खिताबी जीत कभी भूल नहीं सकता। दोस्तों का गलाफाड़ कर चिल्लाना ,वो पानी की बोतलें तोड़ना और हर पॉइंट्स पर कोर्ट में आकर गले लगाना...कौन भूल सकता है....
फिर आया गोवा, पुणे और मुंबई ट्रीप का दौर। दस दिनों का वक्त। लेकिन इन दस दिनों ने हमें ताउम्र ना भूल पाने की खुबसूरत यादे दी। ट्रेन का पूरा सफ़र मस्ती में काट देते। जहाँ किसी स्टेशन पे ट्रेन रुकी ,प्लेटफोर्म क्रिकेट का मैदान बन जाता। वो रेत के घरौंदे बनाना.....एक दूसरे को छेड़ना... रूठना-मनाना....दोस्तों को रेत के दरिया में डूबोना....समुन्द्र की आती-जाती लहरों के साथ देर तक खेलना....ट्रेन हो या क्रूज या फिर बस.......मस्ती का वही आलम......और फिर यादगार लम्हे बन दोस्तों के साथ कैमरे में कैद हो जाना......कुछ भी नहीं भूल पाए है हम.... लगता है जैसे कल की ही बात हो..... ।
धीरे धीरे वक्त हमारे हाथो से फिसलता चला गया और शहर को अलविदा कहने की तारीख मुकरर होने लगी। आखिरी सेमेस्टर क इग्जाम था। रात रात भर हबीबगंज स्टेशन के कैफेटेरिया में बैठकर पढाई होती और अहले सुबह घर लौटते। किताबो से हमेशा दूरी बनाये रखनेवाले को भी लाइब्रेरी के अन्दर आना पड़ा। जूनियर्स ने चुपके चुपके हमारी विदाई की तैयारी कर ली थी। उन्हें भी हमारे दर्द का अहसास था.....हमारी ज़िन्दगी का सबसे यादगार पल हमसे रुखसत होने वाला था....इस गुरुकुल में मस्ती के दौर का ये हमारा आखिरी पड़ाव था.....
परीक्षाये ख़त्म हुई और सबकुछ एक झटके में हमसे अलग हो गया। वो मस्ती छूटी.....गलियां पीछे रह गई.....शहर ने भी हाथ छुड़ा लिया.....दोस्तों का साथ भी अब नहीं रहा......अपनी अपनी मंजिल की तलाश में सभी देश के कोने कोने में फ़ैल गए.....लेकिन दिलो के अरमान नहीं गए.....वक्त रेत की तरह हाथ से फिसल गया......लेकिन दोस्तों के साथ अनछुए रिश्तो का अंत नहीं हो पाया......
माखनलाल यूनिवर्सिटी आज एक गगनचुम्बी ईमारत में आ गया है। पूरी यूनिवर्सिटी एक ही छत के नीचे। लेकिन हमारी जान तो अरेरा इ २२ से इ २८ की गलियों में बसती है.....हमारी सांसे इन्ही चारदीवारियों में अटकी है......जिसके आँगन में कभी हमने भविष्य के सपने बुने थे..... सुख दुःख में एक साथ खड़े थे......इसी आँगन ने इतना कुछ दिया जिसकी बदौलत आज हम सब एक अच्छे मुकाम पर हैं.....
लेकिन उस आँगन में ना होने का दर्द एक टीस बनकर उभरता है.......ये कसक उनके दिलो में भी है जिनके ठेले -खोमचो की शान हमसे हुआ करती थी......चाची की चाय आज भी बनती है लेकिन इसमें वो पहले वाली मिठास नहीं आती..... इस चाय में उस आम के पेड़ की छाँव नहीं जिसके नीचे बैठ कर हम चुस्कियों के साथ चुहलबाजी और फ्लर्ट किया करते थे.....हकीम भाई के समोसे आज भी उतने ही लाजबाव है लेकिन उसकी तारीफ करनेवाले हमारे मस्ती कि पाठशाला का साथ नहीं रहा.....आज भी बड़ी झील के उस पार सूरज निकलता है लेकिन उस झील में हम दोस्तों की नाव नहीं होती......अब तो बस एक दूसरे की यादो में आकर सताते हैं.......ज़िन्दगी की आपाधापी से फुर्सत के चंद पल निकलकर उन रिश्तो को फिर से जीने की एक बेमानी सी कोशिश कर लेते है.....
लेकिन दिल है की मानता नहीं.....उन्ही चीजों के लिए मचलता है जो उसे मिल नहीं सकती......अब इस नादाँ को कौन समझाये की सिर्फ यादों में रह गए हैं वो लम्हें.....अब दिल बस ढूंढता है फुर्सत के रात दिन......लेकिन वो कहते हैं ना---
"अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं,
रुख हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं..."

"इस अंतिम लाइन के माध्यम से मैं अपने दिल के करीब रहने वाले मित्रो से कुछ कहना चाहता हूँ। अगर मेरे इस लेख से किसी की भावना को ठेस लगती है या लगी है तो मैं तहे दिल से क्षमाप्रार्थी हूँ। मेरी ऐसी कोई मंशा नहीं है। मैंने उन दिनों की यादो को जैसा महसूस किया, वैसे ही शब्दों का जामा पहनाया है॥"
धन्यवाद...।

शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

"रिवैलरी ऑफ़ लव"--वैलेनटाइन डे

कहते है प्रेम को बार बार जाहिर करने की जरूरत नहीं होती लेकिन जब दिल इसी प्रेम को एक उत्सव के रूप में मनाना चाहे तो इस वैलेनटाइन डे से बेहतर कोई दिन नहीं हो सकता है। कहने वाले तो कहते रहे है की प्यार के लिए हर लम्हा खास होता है लेकिन मेरा मानना है जब फिजां में इजहारे इश्क की गुदगुदी फैली हो तो इस दिन से बेहतर कोई दिन नहीं होता। इस बार की चिट्ठी लिखी है सेंट वैलेनटाइन ने अपने चाहनेवालों के नाम। इस चिट्ठी में उन्होंने लिखा है -" प्यार, इश्क , मोहब्बत, प्रेम के केमिस्ट्री की मिस्ट्री को समझना किसी साइकोलोजी से कम नहीं।" तो मैंने भी इस वैलेनटाइन डे पर अपने तरीके से इस साइकोलोजी को समझने की कोशिश की । आप भी पढिये और बताइए की मैं कहाँ तक सफल रहा...
"इक लफ्जे मोहब्बत का अदना सा फ़साना है।
सिमटे तो दिल आशिक, फैले तो ज़माना है।
आंसू तो बहुत से है आँखों में जिगर लेकिन,
बिंध जाये सो मोती है रह जाये तो दाना है।
ये इश्क नहीं आसां इतना ही समझ लीजे,
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है."
ये वक्त न खो जाये बस आज ये हो जाये। मैं तुझ में समां जाऊँ तू मुझमे सिमट जाये। ये बेखुदी कैसे पनपती है। हवा संदेशा लेकर आती है तो उस सरसराहट से अपनापन कैसे हो जाता है। जिस्म तो खुदा ने पैदा किया पर रूह पर किसी एहसास का असर कैसे हो जाता है। कोई अच्छा लगने लगता है, कोई प्यारा लगने लगता है तो लोग इसे प्यार, इश्क, मोहब्बत, लव वगैरह वगैरह का नाम देने लगते है। जज्बातों का सयानापन, चौकन्नी निगाहें , बदन में सिरसिराहट, किसी काम में मन ना लगना । हमेशा ही 'उनके' ख्यालो में खोने रहना। पढने बैठो तो पन्नो पर अक्स उभरकर बातें करने लगना।
एक बदली सी दुनिया दुनिया जो निहायत ही अपनी रौ में रंगी चली जा रही हो। जिसमे दूसरे की दखलन्दाजी बर्दाश्त नहीं। अपने शुक्रगुजार ही सबसे बड़े दुश्मन लगने लगते हैं। इनकी आँखों में नींद कहाँ होती है। वो कहते है ना- "पल भी युग बन जाता है नहीं पता थी ये लाचारी, अब तो नींद नहीं आएगी, देख सिरहाने याद तुम्हारी।" जिन्हें प्रेम की रवानी पता है और जिन्हें लगन लगती है तो शब्द और सोच मिलकर गढ़ने लगते हैं। कविता न्यारी और प्रीत पगे भावना उतर आते है कागज़ पर। जीवन बन जाता है कैनवास और चित्र रंगों में ढलने लगता है लव बर्ड की यादो का अंतहीन सिलसिला।
इन्ही नाज़ुक मामले पर किसी मशहूर शायर ने लिखा है-
"गुलशन की फकत फूलो से नहीं कांटो से भी मुहब्बत होती है।
इस दुनिया में जीने के लिए गम की भी जरूरत होती है।
वैइज़-ऐ-नादाँ करता है.एक क़यामत का चर्चा,
यहाँ रोज़ निगाहें मिलती है यहाँ रोज़ क़यामत होती है। "
इनका कहना है की प्रेम किसी हाट में नहीं बिकता । ये मिलन है एहसासों का, तिजारत नहीं। ये मीठी बगियाँ की खट्ठी अमियाँ है । लेकिन जब आप प्यार में पागल जोड़ो से ये सुने की "प्यार कब किसका पूरा होता है जब प्यार का पहला अक्षर ही अधुरा होता है"। तो समझिये इनकी मोहब्बत के कल्पनाओ की उडान पर पहरेदारी शुरू हो गई है और तब शुरू होता है - भावनाओ के उन्माद की उलझनें। मेरी समझ से इन उलझनों की साइकोलोजी भी थोडी अलग है। शायद आधुनिक प्यार में भौतिकता हावी है। समय हर पग पर हमें तोड़ता है। एक्सपेक्टेशन का दौर हर एक को अपनी ओर खींचता है। नज़र अपनी अपनी होती है और तलाश अपनी अपनी।
इसी पर मेरे एक मित्र ने लिखा है-
"प्यार में अब कहाँ वो शरारत रह गई।
अब कहाँ वो छुअन वो हरारत रह गई।
लैला और शिरी के किस्से पुराने हो चले ,
अब कहाँ वो शोखियाँ वो नजाकत रह गई,
प्यार किया जैसे एहसान हो भला,
शुक्रिया तो गया शिकायत रह गई।
नवाब जी की गाड़ी अब छूटती नहीं,
कहाँ वो तहजीब वो नफासत रह गई।
मोहब्बत के अच्छे दाम मिलते कहाँ,
वक्त के बाज़ार में ऐसी तिजारत रह गई।"
शायद इन शब्दों से मेरे मित्र कहना चाहते है की मीरा-कबीर, लैला-मजनू, शिरी-फरहाद का प्यार मोबाइली मोहब्बत और लैपटॉप लव से अलग था। ऐसा प्यार जो सच्चा है। जिसमें कोई दगा या बेवफाई नहीं। ना कोई वादा ना कोई इरादा है। ना कोई पार्टी और ना गिफ्ट का हिसाब है। मतलब साफ है आज के दौर की तरह उनका प्यार कैल्कुलेतेड लव नहीं है।
मेरी समझ से हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए की प्यार की परिणति हमेशा मिलन ही नहीं होती है। प्यार में फ़ना हो जाना भी इसी साइकोलोजी का एक हिस्सा नहीं है क्या। किसी के वास्ते हर गम को भुलाकर मुस्कुराना क्या प्यार नहीं। अपने प्यार से बिछरने के बाद ताउम्र उसकी याद में खुद को भुला देना भी प्यार है। प्यार तो बस एक सुखद एहसास है। जिसका कोई नाम नहीं हो सकता ना ही कोई बंधन।
इसलिए किसी की नज़र से देखने पर जब ख़ुद को दुनिया का सबसे खुशनसीब समझने लगे दिल। किसी की तकलीफ देखकर रो पड़े दिल। किसी के लिए जीना और मर जाने को चाहे दिल तो समझिये इस वैलेनटाइन डे पर आप किसी की प्यार भरी नज़रो से घायल हो चुके है। सेंट वैलेनटाइन के प्यार के असली जज्बातों की पगडण्डी पर चलना शुरू कीजिये और प्यार के इस एक दिनी उत्सव पर हम आप भी इसी रंग में रंग जाइये।
धन्यवाद....





शुक्रवार, 30 जनवरी 2009

"शहीदों की मजारो पे लगेंगे हर बरस मेले...वतन पे मरने वालो का क्या यही बाकी निशां होगा...."

आज़ादी का इतिहास शहीदों के खून से लिखी वो किताब है, जिसका दर्जा हम हिन्दुस्तानियों के लिए पाक किताबो से कम नहीं। इसके हर पन्ने मे दर्ज है खून की रोशनी से लिखी बसंती रंगों का चोला पहनने वाले शहीदों की हकीकत,जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी फ़ना कर दी हमारी आज़ादी के लिए। इस बार की चिट्ठी में जिक्र है उन वीर सपूतों की दास्ताँ जिन्होंने जंगे आज़ादी में अपना सबकुछ न्योछावर कर दिया। सिर्फ इसलिए की आजाद भारत में उन्हें सारा आकाश मिलेगा जो गुलाम मुल्क में संभव नहीं। लेकिन राजनेताओ की लापरवाही कहे या नौकरशाहों की लालफीताशाही या फिर आजाद देश के नागरिको की बेचारगी। देश के ६०वे गणतंत्र दिवस के मौके पर भी आज़ादी के ऐसे दीवानों का अंजाम और इंतजाम मुकम्मल नहीं।

"इस धधकती चोटियो की लम्बी है व्यथा...

पीर कितनी सह रहे है क्या किसी को है पता..."

मेरे कंधे पर टूटी हुई लाठी की तरह किसी ने अचानक हाथ रखा। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो एक ८०-८५ साल के बाबा की सूनी आँखें मानो बोल रही हो।"कितना शानदार लगता है तिरंगा जब इमारतो पर लहराया जाता है, स्कूल कॉलेज और संस्थानों में फहराया जाता है, राजनेता साल में एकाध दिन तिरंगा फहराते हैं, मिठाइयां बंटते हैं और अपना कर्त्तव्य भूल जाते है। दरअसल ये दिन २६ जनवरी यानि गणतंत्र दिवस का था और जगह थी रांची का मोराबादी मैदान। जहाँ महामहिम राज्यपाल जी झंडा फहरा रहे थे। मेरे कंधे पर हाथ रखने वाले वो शख्स थे आशीर्वाद टाना भगत। जो संघर्षो की यादो के साथ जिंदा हैं। वो सेनानी हैं हमारे स्वतंत्रता संग्राम के।

अनायास ही मैं चिंतन में पर गया और सोचने लगा। ये त्यौहार उन्ही जैसे लोगो की बदौलत मनाया जाता है जिन्होंने आज़ादी के हवन कुंड में अपने प्राणों की आहुति दी है। इसमें कितने फ़ना हुए गिनना मुश्किल है लेकिन जो आज जिंदा हैं उनकी सुध लेनेवाला कोई नहीं। गुजरे वक्त की गलियो में अगर इनलोगों की यादो के सहारे जाया जाए तो अंग्रेजो के जुल्म की स्याह गलियो को देखकर जिस्म के रोंगटे खड़े हो जाते है।

लेकिन इसके एवज में हमलोगों ने उनको जो दिया वो नाकाफी नहीं...? इनलोगों ने अपना कल हमारे आज की खातिर स्वाह कर दिया। जब ये इन तस्वीरो में कैद नहीं थे और फिरंगियो से दो दो हाथ कर रहे थे। उस वक्त इन्होने महज आज़ादी के ख्वाब देखे होंगे और आज़ादी के बाद ज़िन्दगी के कई सुहाने सपने बुने होंगे। आज की तस्वीर बदरंग है। इनका ऋण चुकता नहीं हो सकता लेकिन कुछ फ़र्ज़ तो अदा हो ही सकता है। आवाम की बात तो छोडिये आशीर्वाद टाना भगत और इनके जैसे तमाम सपूतो और सेनानियो की बेवाओ की बात की जाए तो सरकार फ़र्ज़ अदाएगी की रस्म निभाने में भी कंजूसी ही करती है। पेंशन की व्यवस्था हो या सरकारी नौकरियो में इनके परिवार की तीसरी पुश्त की हिमायत। सेनानियो के आश्रितों के लिए २ फीसदी आरक्षण का झुनझुना हो या वीरता पुरस्कारों का गोरखधंधा। कागजी सच कुछ भी हो लेकिन सरकारी सहुलिअतो और अपने आत्मसम्मान की बातो को आज ये कटघरे में खडा करते नज़र आ रहे है। ऐसा लगता है की इन बहादुर सपूतो पर सरकारी सुविधाओ और स्वतंत्रता सेनानी का तमगा का अहसान न ही किया जाता तो बेहतर होता।

सरकारी सच, लोगो की सोच और ज़मीनी हकीकत में बड़ा फर्क होता है। जंगे जवानों की जुस्तजू आज़ादी की ज़मीं में फ़ना हो रही है। लेकिन जो जंगे आज़ादी के जवान उम्र के हथियारों से लैस इस वक्त ज़िन्दगी के सरहद पर मौत की पहरेदारी कर रहे है, उन लोगो के प्रति क्या हमारा फ़र्ज़ नहीं बनता की इन वतनपरस्तो को गणतंत्र के इस मौके पर उन तोहफों से नवाजा जाए जो उनके लिए उम्मीद से दोगुना साबित हो। अगर ऐसा ही चलता रहा तो आनेवाली पीढी को कुर्बानी के सच्चे किस्से कल्पनाओ की कोरी बकवास लगेंगे।

धन्यवाद....

बुधवार, 21 जनवरी 2009

...विलायत से आया मेरा दोस्त..दोस्त को सलाम करो...

इस बार की चिट्ठी है मेरे दोस्त - I am the Best के बारे में। नाम पे मत जाइये। ये उसका तकियाकलाम था और हम दोस्तों ने उसका नाम ही रख दिया था।किस तरह वोह बचपन से ही विदेश जाने के लिए fascinate था...फिर समय के साथ उसका विदेश जाना॥हमरा साथ छूटना.समय बिताना और क्यों और कैसे उसकी वतन वापसी होती... आप भी पढिये..
"यादें बस यादें रह जाती है"...विलायत जाने के साल भर बाद उसके द्वारा लिखा गया मेल के कुछ हिस्से...
"जेब में भारतीय पासपोर्ट और मन में विलायती सपने।दोनों के मेल से एक नए देश,नई ज़मीं,नए माहौल मे जाना अपने आप मे अजीब है।वतन छूटा।गलियां छूटा। लोग छूटे।मौसम छूटा ।पहचान छूटा । शुरू के वर्षो में छोटी से छोटी हर छूटी हुई चीज़ का दर्द सालता रहा। स्कूल से कॉलेज तक के साथी का साथ छुटता चला गया। यहाँ तक की मोहल्ले का पानवाला राजू याद आता रहा जो हमारे नाम के साथ साथ ये भी जनता था की हमें कैसा पान पसंद है और कितने नंबर का तम्बाकू। सिगरेट का कौन का ब्रांड चाहिए। गली के किनारों पर उपेक्षित पड़े कूड़े को सम्मान देती गाय भैंसे याद आती रही। बेघर कुत्ता याद आता रहा जब नैएट शो देखने के बाद घर लौटते पर भौकता हुआ पीछे दौड़ता और हम सभी को घर के दरवाजे तक पहुचकर विदा लेता। माँ के हाथ की बनी दाल सब्जी याद करके दिल रोता रहा। हाय। वो स्पेशल छौंक हाय! वो लजीज कबाब,जिन्हें खान चाचा टपकते पसीने के बीच जब प्याज के लच्छे और तीखी चटनी के साथ परोसते तो हमलोग का उंगलियाँ चाटते हुए चिल्लाना और मोहल्ले के तथाकथित बुद्धिजीवी का हमें छिछोरा समझाना याद आता रहा। यादो का एक हुजूम था जो आंधी की तरह आता रहा और इस दुसरे मुल्क में बसने को कभी मुश्किल तो कभी आसान बनाता रहा।
मगर मेमोरीचिप की भी एक सीमा होती है। फिर नई आकांक्षाओ को पूरा करने और एक अदद पहचान बनाने की जद्दोजहद के बीच संघर्ष का एक अध्धाय शुरू हुआ॥ और इस बीच यादो का साया दम तोड़ता गया॥ और समीर व्यावहारिकता का भी तकाजा था की अतीतजीवी बनकर ये संभव नहीं॥ लेकिन मन में एक आस की चंद पौंड कमाने के बाद बेहतर जीवन के साथ अपने वतन,अपनी मिटटी लौट जाऊ.."
दिन बीता। महिना बीता और ७ साल कैसे बीत गए। मालूम ही नहीं चला॥सब अपनी ही बनायीं दुनिया में खो गए॥ कभी कभार हमलोगों की मेल के जरिये बात हो जाया करती थी...उसी दरमयान मैंने एकबार उससे पूछा -"रांची लौटने की इच्छा मन के किसी कोने में दबी है या नहीं।" ऐसा पूछने पर उसका बदला सुर मुझे अचंभित कर गया॥ वो कहने लगा.. "इतने वर्षो में बहुत कुछ बदल गया होगा न इंडिया में। अरे गर्मी और धुल में एलर्जी हो जाती है। पोल्लुशन इतना की साँस लेना मुश्किल॥ जगह जगह गन्दगी। जिधर देखो गाय, भैस कूड़ा चरती नज़र आती है। पानी ? बस सुबह शाम आधा घंटा। बिजली?जब चाहे लोडशेडिंग। बाज़ार का खाना तो सिस्टम को बिलकुल सूट नहीं करता। खान चाचा के कबाब में इतना फैट और मिर्च मसाला होता है की उन्हें देखना भी पाप है।"
फिर अचानक ऑरकुट पर उसका मैसेज आता है." I am coming Bharat bag & baggage." मेरे मन में प्रश्नों की लम्बी फेहरिस्त तैयार हो गयी की इस बच्चे को अचानक क्या हो गया जो इन गुजरे सालो में विलायती राग अलापने के अलावा कुछ नहीं करता था। वहा जॉब भी बढ़िया थी। फिर ये अचानक "मेरा भारत महान क्यों"।
खैर! एक रात खान चाचा के छोटे लड़के ने सुचना दी की कल खान चाचा के यहाँ वही लजीज कबाब का न्योता आया है। जरूर आना है। सभी लंगोटिया यार नियत समय पे वहां पहुच गए। तभी एक जाना पहचाना शख्स ब्लैक मर्सिडीज से उतरता है॥ हमलोग दंग रह जाते है।"अरे ये तो अपना I am the Best है बोले तो राकेश।" पुरानी यादो से धुल की परत हटती चली गयी। खान चाचा की प्लेट की तरह। मैंने पूछा "क्यों रे विलायत की तो बहुत तरफदारी कर रहे थे फिर ये सब... अचानक..." उसने बड़ी साफगोई से बताया की--"सच है इस बीच बहुत कुछ बदल गया है। भारत के टेलिविज़न चैनल चौबीस घंटे भारत के समाचारों का निर्यात करते हैं। टीवी सीरिअल बदलते भारत का सामाजिक चेहरा पेश करते हैं। इंडिया के बिजनेसमैन वैश्विक बाज़ार से टक्कर ले रहे है। भारतीय फिल्मो की धमक अमेरिका से विलायत तक हो गयी है। भारतीय चावल, डाले, मसाले, पापड़, राजनीति, मंदिर,मस्जिद, संस्कार के Export Quality की बात ही कुछ और हो गयी है। पासपोर्ट! वो तो इतना लचीला हो गया है की क्या अमेरिका और क्या ऑस्ट्रेलिया। क्या गर्मी क्या सर्दी। लम्बे वीकैंड पर यूरोप जाओ या कही और। अब महीनो इंतजार की नौबत नहीं।
और हम जैसे प्रवासी भारतीय। "लौटे की न लौटे " की दुविधा और अनिश्चय में आबाद होने का इंतजार कर रहे हैं।NRI अब भी प्रवास में है। आधा इधर आधा उधर। जिस देश में बसना चाहते हैं उसे पूरी तरह अपना नहीं पाया। और इस वैश्विक मंदी ने सभी की कमर ही तोड़ दी है। नौकरी की टेंशन और अपनों से बिछड़ने का गम हमेशा सालता रहता है। यहाँ वो अजनबी है। दिल और दिमाग में हमेशा द्वंद चलते रहता है। उसके दिल से पूछो तो उसे भारत चाहिए जिसे वो छोड़कर आया था। और अब भारत में भी क्या कुछ नहीं है। जो उसे प्रवासी जीवन बिताने के लिए चाहिए। मैंने इस बार अपने दिल की सुनी और वक्त की चतुराई भी यही थी। मैं इस मिथक को भी पीछे छोड़ना चाहता था की NRI का मतलब सिर्फ Non Returnable Indian नहीं है। सोचता हूँ भारत अब इतना बुरा तो रहा नहीं। Infact बुरा तो कभी था ही नहीं। सिर्फ नज़रिए का फर्क था। अपनी ज़मीन तो अपना ही होता है॥ बहुत पैसे कम लिये। अब यही पर अपने देश के लिये कुछ करूँगा।
इसी बीच खान चाचा की वही रौबदार आवाज़ से सभी की तल्लीनता टूटी।- "अरे बच्चो देखते ही देखते तुमलोग इतने बड़े हो गए और मैं चाचा से दादा। और एक बात। कल से मेरा तीसरा बेटा जौहर भी तुमलोगों को अरेबियन कबाब खिलाएगा। वह आज हमेशा के लिये सउदी अरब से अपना मुल्क वापस आ रहा है। हमलोग सभी जोर से हँसने लगे और मुझे सुखद आश्चर्य हुआ और दिल को तसल्ली भी की वाकई अब NRI- Non Returnable Indian नहीं रहा। NRI,OI हो गया है यानि Only Indian।
"मेरा भारत महान।"
धन्यवाद।

शुक्रवार, 9 जनवरी 2009

टेंशन के लाईट इफेक्ट....

सबसे पहले आप सभी को नए साल की हार्दिक शुभकामनाये॥ नया साल ढेर सारी बातें..इस बार की चिट्ठी है उन लोगो के नाम जो टेंशन से डरते है॥टेंशन से डरिये नहीं,टेंशन के कई फायदे भी हैं।बस जरा स नजरिया बदलने की जरुरत है॥फिर देखिये आपकी ज़िन्दगी कितनी खुबसूरत बन जाती है...

"गुजिश्ता दिन एक ख्वाब सा लगता है,कभी कांटा तो कभी गुलाब सा लगता है॥

कही चुभन,कहीं कशिश भी है, ये दर्दे ज़िन्दगी कितनी लाजवाब सी है।."

ऐसा ही कुछ मंज़र है ज़िन्दगी की।कब, क्या हो जाये कहना मुश्किल है।ढेर सारी योज़नाये,ख्वाबों का अम्बार।अपनों से आशाएं और दूसरो से मिली हार। उम्मीदों का सैलाब और भीड़ में गुम होने का डर। अनंत सपने आँखों मे संजोये,समूचा आकाश नापने की इच्छा लिए ,पूरा का पूरा शहर मुट्ठी में बंद कर लेने की हसरतो के साथ हम सयाने होने लगते है। कुछ कदम बढ़ते ही आसपास की तल्ख़ ज़मीं हमारे सपनों की आद्रता सोखने लगती है। ज़िन्दगी हर कदम पर तोड़ने लगी है। हंसी छिनने लगती है और हम मानने लगते है की हार और समझौता ही हमारी नियति है। फिर उत्साह ,उमंग दुम दबाकर कहीं दुबक जाते है। और ज़िन्दगी का पहिया एक ऐसी पथरीली राह पकड़ लेता है जहाँ हमें टेंशन के सिवा कुछ हाथ नहीं लगता। हम सोचने लगते है की काश ज़िन्दगी का भी कोई सेट फार्मूला होता।

जैसा की हम सब जानते है की निराशा,अवसाद,दुःख ,चिरचिरापन और मेंटल disorder इस टेंशन के नेगेटिव इफेक्ट हैं।और हम किसी भंवर की तरह ऐसे सिचुअशन से घबरा कर उलझते cहाले जाते हैं। टेंशन की ये सिचुअशन भी बड़ी अजीब है। किसी को वोर्कलोड़ का टेंशन तो किसी को वोर्कलेस का टेंशन। किसी को पर्सनल लाइफ की टेंशन तो किसी को प्रोफेशनल लाइफ की। किसी को अपनों से आगे जाने का टेंशन तो किसी को सबको पीछे छोड़ने की टेंशन।एक्साम मे पास और फेल होने का टेंशन तो सबको कोई न कोई टेंशन। हम सोचने लगते है इससे तो अच्छा बचपन ही था जब कोई टेंशन ही नहीं थी। लेकिन सही मायने में टेंशन से हाथापाई बचपन से ही शुरू हो जाती है। मतलब साफ है की टेंशन हाथ धोकर हमारी ज़िन्दगी में बड़े ही आराम से शुमार हो जाती है। एक टेंशन के खात्मे के साथ दूसरी टेंशन बगुले की तरह मुंह बाये दरवाजे पर खड़ी मिलाती है।

दरअसल हम सब मानवीय आदतों के चलते टेंशन से बच नहीं पाते है।

टेंशन के नेगेटिव इफेक्ट से तो हम सब वाकिफ है।लेकिन क्या इसके पोजिटिव इफेक्ट नहीं है? जरा सोचिये बिना टेंशन के हमारी ज़िन्दगी अधूरी नहीं है क्या। बिना टेंशन के हमारा वर्क टाइम से कम्प्लीट हो पता है। अगर हमें एक्साम की टेंशन न हो तो हमारी स्टडी सही से चल पायेगी। मंडे से फ्रायडे ऑफिस जाने का टेंशन न हो तो हम सही समय पर वह पहुच पाएंगे। लक्ष्य तक पहुचने का टेंशन न हो तो क्या हम अपना गोल अचीव कर पाएंगे। इसलिए एक लिमिट तक टेंशन का हमारी ज़िन्दगी मे होना सही है। अब ये आप पर डिपेंड करता है की आप इस टेंशन का नेगेटिव या पोजिटिव आस्पेक्ट चुनते हैं.

आज टेंशन दूर करने के लिए योग और ध्यान का सहारा लिया जा रहा है।सेमिनार्स हो रहे हैं,किताबों की लम्बी फौज तैयार हो रही है। लेकिन दोस्तों टेंशन कम नहीं हो रही है तो टेंशन लेते ही क्यों हो भाई॥ज़िन्दगी हर दिन नए सवालो के साथ आपके सामने होगी लेकिन मेरा यकीन मानिये जिस दिन आपके पास भी जवाबो की लम्बी फेहरिस्त तैयार हो जाएगी उसी दिन से टेंशन आपकी ज़िन्दगी से रफूचक्कर हो जाएगा। इसलिए दोस्तों लाइफ को इंजॉय कीजिये और भरपूर जिए। धूप के टुकरो को ज़िन्दगी में भर लीजिये और हवा का एक एक कतरा सीने मे उतार लीजिये। प्रोफेशन में पैशन का रंग भर कर आँखों की नमी को भुला दीजिये। दुसरो की ख़ुशी को अपना चोला बना लीजिये। फिर देखिये आपकी ज़िन्दगी से टेंशन खुद ब खुद छू मंतर हो जाएगा। इसलिए हम कोशिश करे की टेंशन सर्दी की वह सुनहरी धुप बने जो हमारी जरुरी काम निपटारे के लिए रोज हमारे आँगन में घर के एक नियमित सदस्य की तरह उतरती रहे।

धन्यवाद्...