गुरुवार, 27 अगस्त 2009

आज़ादी के मायने...

कविता लिखने में मुझे उतनी ही तकलीफ होती है जितना की रात के अंधेरे में जंगल की सैर करना। आज़ादी के दिन एक मित्र का एस एम् एस आया तो सोचा इसी पर कुछ लिखने की कोशिश की जाए और इस बार कविता लेखन की ओर एक कदम बढाया जाए।
हरारत, हिकारत और तिजारत ही आजाद कौम की आवाज़ नहीं होती। आजाद सपनों की कुलांचे , बेहतर भविष्य के दरवाज़े खोलती है। आज़ादी के इतने सालों के बाद अगर युवा मन बेफ्रिकी में जिये, रोज़गार की कडियाँ जुड़े, अर्थतंत्र बाज़ार की रीढ़ मज़बूत करे, अफसरशाही संवेदनशील बने, हर नागरिक आत्मसम्मान से रहे तो बेहतर आज़ादी के मायने हैं ,वरना आज़ादी बेमानी है। इस बार की चिट्ठी है ऐसे ही हिन्दुस्तानी के लिए जो वाकई कुछ करना चाहते है अपने वतन के लिए।

गाँधी जी के समय की अपनी आज़ादी,
अब बूढी हो चली, जब
बचपना था तो लड़कपन समझ सब भूल गये,
जवानी आई तो सबके होश ही गुम हो गये,
जो दिन रात देते थे दुहाई, की मुट्ठी में है तकदीर हमारी,
जाने उनके सारे सपने कहाँ खो गये,
अपने आपको वतनपरस्त कहने वालों, ओ,
भारत के भाग्य विधाता , जागो,
अगर अब भी अपनी आज़ादी की क़द्र ना करोगे ,
तो एक दिन ऐसा सुनोगे,
की वतन के दुश्मन सारा हिन्दुस्तां ही बेच गये,
और हम अपनी आज़ादी , आज़ादी, आज़ादी को फ़िर से तरसते रह गये.....।
धन्यवाद...।

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