लोकसभा चुनाव में व्यस्त रहने के कारण इस बार की चिट्ठी में थोडी देरी हुई। माफ़ी चाहूँगा। इस चुनाव में बहुत सारे रंग देखने को मिले। ये रंग जनता जनार्दन के साथ-साथ राजनैतिक दल, राजनेता, गैर सरकारी संगठन और मीडिया का रहा। इन सब रंगों में से एक रंग अप लोगो के सामने रख रहा हूँ। शायद कहीं पढ़ा होगा या देखा भी होगा। इस बार की चिट्ठी में जिक्र है चौथे खम्भे का एक काला रूप।भारत में भ्रष्टाचार का जो गठजोड़ है, उसमें पत्रकार दो तरह की भूमिका में नज़र आते है। कुछ राष्ट्रीय अख़बार सतर्क सैनिक की भूमिका निभाते है और सार्वजानिक हित में गड़बडियों को उजागर करते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी है जो असरदार विज्ञापनदाताओं के दबाव में ख़बर को ही दबा देते हैं। ये काम इतनी सफाई से की जाती है है कि पाठक को साफ तौर पे पता नहीं चलता है कि जो वो पढ़ रहा है, वो ख़बर है या विज्ञापन।
ताज़ा वाक्या चंडीगढ़ से लोकसभा चुनाव के स्वतंत्र उम्मीदवार अजय गोयल के साथ हुआ है। आपने उनके बारे में ना के बराबर सुना होगा। चंडीगढ़ कि जनता भी उनको ज्यादा नहीं जानती। जब उनकी चुनावी गतिविधियों को अख़बार में छपने की बात आती है तो टका सा जवाब मिलता है- प्रेस में कवरेज़ चाहिए तो पैसे देने होंगे।
अभी तक उनसे करीब दस लोगों ने इसके लिए संपर्क किया है। इसमे से कुछ दलाल और पब्लिक रिलेशन मैनेजर थे, जो अख़बार मालिकों की तरफ़ से उनसे मिले थे। इसके अलावा कुछ रिपोर्टर और संपादक भी मिले। सबका संदेश साफ था कि अगर वे भुगतान करेंगे तो उनके बारे में छपेगा। जी नहीं, ये विज्ञापन की बात नहीं है, ये भुगतान, वे खबरों के लिए चाहते हैं।
एक दलाल ने चार अख़बारों में तीन हफ्ते तक कवरेज़ के लिए दस लाख रुपये मांगे। चंडीगढ़ के एक अख़बार के संवाददाता और फोटोग्राफर ने उनकी खबरें छपने के लिए डेढ़ लाख रुपये कि मांग की। इसके बाद एक और संवाददाता ने तीन लाख रुपये की मांग की और पाँच अख़बारों में दो हफ्ते तक कवरेज़ का वादा किया। उनसे मिलने वाले ये सब लोग राष्ट्रीय हिन्दी या फ़िर क्षेत्रीय अख़बारों के थे। हद तो तब हो गई जब इसका जायजा लेने के लिए की 'आखिर होता क्या है' , उन्होंने झूठे दावों वाली एक प्रेस विज्ञप्ति तैयार की। कुछ ऐसी जगहों पर चुनाव अभियान चलाने का दावा किया, जहाँ वे कभी गए तक नहीं। अख़बार में सब जस का तस छप गया। अपने पूरे अभियान में उन्होंने एक चीज़ कभी भी, कहीं भी नहीं देखी - वो थी कोई संवाददाता।
चिंता लाजिमी है क्यूंकि चौथा खम्भा भी गुनाहगार की कतार में खड़ा है? ये बहुत हताश और निराश करने वाला है। साक्षरता और शिक्षा का क्या अर्थ जब लोगों को असली खबरें , खोजी रपटें ही पढने को नहीं मिले। शक-शुबहे करते और सवाल की आग में लपेटते पत्रकार ही ना हो। इससे भी बुरी बात ये है कि संवाददाता, संपादक और अख़बारों के मालिक लोकतंत्र की प्रक्रिया को ही बंधक बना ले। हर तरह से स्वतंत्र प्रेस लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण और जीवंत हिस्सा होती है। एक भ्रष्ट प्रेस लोकतंत्र की सडन का एक लक्षण भी है और इसकी भूमिका भी।
(वाल स्ट्रीट जर्नल से साभार )
धन्यवाद।
1 टिप्पणी:
achchi chunavi post hai sir?aur bataye kya chal raha hai nay taaja? kuch naya daliye.....blog me.....
harsh,mcu
एक टिप्पणी भेजें