रविवार, 22 अगस्त 2010

भास्कर की लॉन्चिंग के साथ शुरू हुआ झारखंड में प्रिंट के दिग्गजों की जंग


इस बार की चिट्ठी है उन सभी पाठकों के नाम जो सूर्योदय के साथ चाय की प्याली हाथ में लिए अख़बार पढना नहीं छोड़ते हैं. झारखण्ड के पाठकों के लिए खुशखबरी है. अब उनकी पसाद के अख़बारों के साथ एक और नाम जुड़ गया है. दैनिक भास्कर का. अब उनके पास एक और विकल्प हो गया है. चलिए अच्छा है संचार क्रांति के इस युग में लोगों के पास सूचना भी तेज़ी से पहुँच रही है..भास्कर के बारे में लिखी गयी इस चिठ्ठी को आप भी पढ़िए.
दैनिक भास्कर को आज विधिवत लॉन्च कर दिया गया. जैसा की आपको मालूम है कल ही इससे सम्बंधित खबर और डमी का प्रकाशन भास्कर वालों द्वारा किया गया था. इसकी तैयारी भी जोर शोर से चल रही थी. खबर है कि आज भास्कर द्वारा 80 हज़ार कापियां छापी गईं है. पाठकों को 16 पेज के मुख्य अखबार के अलावा 16 पेज का डीबी स्टार मुफ्त में दिया गया है. ये डीबी स्टार पाठकों को हर रोज मुहैया करवाया जायेगा.खास बात ये है कि इसके सभी पेज कलर हैं. भास्कर के सभी दिग्गज महानुभाव कई दिनों से रांची में जमे थे.
खबर है कि कल से ही मास्टर मांइंड ओम गौड़ के अलावा कंपनी के चेयरमैन रमेश चंद्र अग्रवाल, डायरेक्टर पवन औऱ सुधीर अग्रवाल के साथ कई राज्यों के स्टेट हेड मौजूद थे. भास्कर ने लॉन्चिंग का आगाज बड़े ही शानदार ढंग से किया. रांची में 10 सेंटर बनाए गए थे. सभी पर भास्कर के लोग मौजूद थे. सभी सेंटरों पर अनेक तरह के कार्यक्रम चल रहे थे. शहनाइयाँ बजाई जा रही थी. पर्चियां बांटी जा रही थी. लोगों का स्वागत गजराज के द्वारा किया जा रहा था.
इसकी मार्केटिंग भी जबरदस्त तरीके से की गयी. भास्कर ने अपनी लॉन्चिंग में कोई कसर बाकि नहीं रहने दिया है.
खैर ये तो हुई भास्कर के आगाज़ की बात.
अब मूल मुद्दा शुरू होता है. भास्कर के आने की सुगबुगाहट के साथ ही झारखंड में जमे जमाये अख़बारों की नीद उड़ने लगी थी. अब जब भास्कर को लॉन्च कर दिया गया है तो उनका चैन खोना लाजिमी है. गौरतलब है कि भास्कर की सीधी जंग प्रभात खबर और हिंदुस्तान से है. इन मीडिया समूहों की जंग में पत्रकारों की चांदी ही चांदी है. उन्हें अपना मोलभाव करने का सुनहरा मौका मिला है. इन तीनों अख़बारों से लोगों का आना जाना लग चुका है.
पाठकों को भी इस जंग में फायदा ही हो रहा है. अब उन्हें अखबार पढने के लिए सिर्फ दो रुपैये खर्च करना पड़ रहा है. कंटेंट,मार्केटिंग, डिस्ट्रीब्यूशन, सर्कुलेशन, रीडरशिप और अन्य सभी जगहों पर जंग शुरू हो चुकी है. जंग इतनी तेज़ है कि अगर भास्कर हिंदुस्तान के सात लोगों को तोड़ता है तो हिंदुस्तान उसके दस लोगों को.
25 सालों से झारखंड की आवाज़ से आन्दोलन बन चुका प्रभात खबर और इसके प्रधान संपादक हरिवंश की अपनी एक पहचान है. क्षेत्रीयता के मामलों में इसकी कोई सानी नहीं है. वहीं हिंदुस्तान देश का सबसे बड़ा तेज़ी से विस्तार करता अख़बार है.
स्थानीय संपादक अशोक पाण्डेय को अपने लोगों को जोड़कर रखने और दूसरे मीडिया समूह के लोगों को तोड़कर लाने में महारत हासिल है. हिंदुस्तान भी झारखंड में रच बस गया है. भास्कर भी सबसे ज्यादा बिकनेवाला और विश्वसनीय अख़बार है. कहा जाता है कि भास्कर के सुधीर अग्रवाल के पास अगले 50 सालों का प्रिंट मीडिया के स्वरुप का ब्लू प्रिंट तैयार है.
ऐसे में भास्कर को झारखंड में इन दोनों अखबारों से दो दो हाथ के लिए तैयार रहना होगा. आने वाले समय में देखना दिलचस्प होगा कि इन दिग्गज मीडिया समूहों की जंग में क्या नया मोड़ आता है. बहरहाल इतना तो कहा ही जा सकता है कि समीकरण जो भी बने हर हाल में फायदा तो पाठकों का ही होने वाला है.
धन्यवाद...1

सोमवार, 16 अगस्त 2010

एक नज़र: सामाजिक तानेबाने के हिंसक लोग

इस बार की चिट्ठी आप तक लाये हैं मेरे एक दिल अज़ीज़ और चिर-परिचित असामाजिक मित्र ने … ना ना ना गलत मत समझिये.. इस चिट्ठी में उन्होंने अपने आप को संबोधित किया है चिर-परिचित असामाजिक दोस्त.. ये तो आप चिट्ठी पढ़ने से खुद ब खुद जान जायेंगे कि ये शख्स अपने आप को ऐसा क्यों कह रहे हैं. तो जरा गौर फरमाइए उनके द्वारा भेजी गयी इस चिट्ठी पर...

समाज का अर्थ क्या होता है? ये भला कुछ अस्तित्व विहीन लोगों से बेहतर और कौन जान सकता है…जो सामाजिक होने का दिखावा तो करते हैं , लेकिन हकीकत में सामाजिकता से उनका दूर दूर तक कोई वास्ता ही नहीं है .ये बात मैंने यहाँ पर आप लोगों के सामने इसलिए रखी है , क्योंकि कुछ दिनों पहले ही मुझे “सामाजिकता” का मूल अर्थ समझाया गया, क्योंकि इनकी नजर में मैं समाज की उस सामाजिकता का हिस्सा नहीं हूं , जहाँ मैं इनकी किसी राय से सहमत हो सकूं…

अब कोई ऐसे सामाजिक लोगों से ही पूछे कि उस समय उनकी सामाजिकता क्या घास चर रही थी जब किसी बात को स्पष्ट करने के बजाय ये सामाजिक प्राणी अपनी हदों से बाहर निकल गए थे . वैसे ये भी कहना यहाँ पर गलत नहीं होगा कि लोग अपने अस्तित्व की परिपाटी को भूलकर लोगों के सामने अपना ही व्यंग्य बनाते फिरते हैं ! वो भी कुछ ऐसे शब्दों का उपयोग करके जिनका मतलब उन्हें भी नहीं पता होगा .

दोस्तों की श्रेणी में पहले रह चुके ये लोग आज किसी दोस्ती के लायक तो रहे नहीं, लेकिन अन्दर ही अन्दर इन्हें किसी ऐसे शख्स से आगे निकलने की होड़ मची हुई है , लेकिन हकीक़त है कि उनसे आगे ये कभी निकल ही नहीं सकते. इन “सामाजिक प्राणियों” से कोई ये भी पूछे कि “दुर्जन हरकत” का अभिप्राय क्या होता है? वास्तव में अगर कोई दुर्जन हो ही जाता है तो उसका सारा व्यक्तिव्य ही नकारात्मक हो जाता है . पर अब उनकी इस हिंदी की विशिष्ट शैली के क्या कहने...! जो हम और आप इन सामाजिक प्राणियों से ही सीख पाते हैं...!

अब रुख करते हैं कुछ ऐसे ही शब्दों की ओर जिनको देखकर तो लगता है कि ये वास्तव में हिंदी के ही हैं लेकिन इनका उपयोग निहित वाक्य में कैसे किया जाता है…आइए हम इन्हीं से जानते हैं .

1. “मानसिक समीक्षा”

2. “सकारात्मक व नकारात्मक आलोचना”

3. “सामाजिक ताने बाने से जुडी एक वेबसाइट”

4. “अनर्गल बाण”

इस विशिष्ट हिंदी का ज्ञान अगर आप लोगों को समझना मुश्किल हो रहा है तो चिंता न करें…इन सामाजिक प्राणियों के शब्दकोश में कई ऐसे शब्द हैं जो शायद ही आपको किसी एक वाक्य का भाव समझा सकें. सामाजिक तानेबाने के ऐसे शब्दों को सुनकर मुझे आश्चर्य तो नहीं होता लेकिन कभी ऐसा लगता है कि कहीं न कहीं इन सामाजिक प्राणियों की शिक्षा में कोई कमी जरूर रह गयी है .वरना मैं तो ये भी कहता हूँ कि अगर ऐसे लोग अपने आपको सामाजिक कहने का श्रेय जबरदस्ती लेना चाहते हैं, तो वास्तव में ये सामाजिक ही हैं. पर मैं ऐसे सामाजिक प्राणी की श्रेणी में रहना नहीं चाहता …वजह ये है कि मैं अपने कामों की समीक्षा करता हूँ ना

कि

अपनी सोच की .

चलिए अब बात करते हैं इनकी “वास्तविक सामाजिकता” की..
.

इनके मुताबिक समाज का अर्थ होता है जहाँ लोग मिलजुल कर रहें…जहाँ आपसे जुड़े सारे लोगो की राय एक ही हो . तो अब इन “सामाजिक प्राणियों” को कोई बताये कि ये अपनी निजी ज़िन्दगी को समाज के सामने कैसे रख रहे हैं ..! मुझे इनकी निजता से कोई सरोकार नहीं पर इनके सामाजिक होने के नाते समाज को बिल्कुल ही इनकी वास्तविकता से फर्क पड़ता है .ये मैं नहीं कहता लेकिन कुछ ऐसे ही “सुधरे सामाजिक प्राणियों” से इन “सामाजिक प्राणियों” की बातें सुनने को मिलती हैं. अब इन सामाजिक प्राणियों से ही कोई पूछे कि ये वास्तव में सामाजिक श्रेणी में आते हैं या फिर समाज की परिधि में रहकर लोगों के सामने सामाजिक होने का दिखावा करते हैं.

अब अगर आप सामाजिक हैं तो मुझे ये बताने की चेष्टा जरूर करियेगा कि जो लोग सामाजिकता की परिभाषा से ही वाकिफ़ नहीं हैं, वो मुझे समाज का आईना दिखाने की कोशिश क्यों कर रहे हैं? जबकि उनकी खुद की सामाजिकता समाज के दायरों से कहीं बाहर है...!

आपका

“एक चिर -परिचित असामाजिक दोस्त”

ज्यादा जानकारी के लिए ये लिंक ज़रूर क्लिक करें -

http://looseshunting.blogspot.com/2010/07/blog-post_20.html

शनिवार, 14 अगस्त 2010

चिट्ठी लाने में हुई देरी, माफ़ी चाहूंगा

आप तक नयी चिट्ठी लाने में कुछ ज्यादा ही वक्त लग गया . माफ़ी चाहूंगा... क्या कीजियेगा... मीडिया की दुनिया ही ऐसी है . ना दिन को सुकून ना रात को चैन…

खैर. कुछ जरूरी और गैरजरूरी कामों में इस कदर मशगूल हो गया कि आपतक पहुँच नहीं पाया . अब मेरी कोशिश रहेगी कि आप तक ये चिट्ठी कम से कम सप्ताह में एक बार जरूर मिले… वैसे वक्त का क्या भरोसा …पानी बनके बह जाये …

तो फिर इंतज़ार कीजिये नयी चिट्ठी का... मै यूं गया और यूं आया…तब तक आप सबों को जश्न-ए-आज़ादी... मिलते हैं एक छोटे से ब्रेक के बाद …

धन्यवाद...1