हर एक की ज़िन्दगी में कुछ मीठे पल आते हैं जो यादों में आकर उन्हें हंसाते और रुलाते हैं। उन यादों को हर कोई अमानत की तरह सँजोकर रखना चाहता है ... तो मैं भी इस बार की चिट्ठी में यादों के समुन्दर से कुछ मोती निकलकर आप सबो के सामने रखना चाहता हूँ.... हो सकता है इस बार की चिठ्ठी थोडी लम्बी हो पर पढियेगा जरूर....मौका था- माखन लाल चतुर्वेदी नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ जर्नलिज्म का द्वितीय दीक्षांत समारोह... जहाँ दूसरे पत्रकार की तरह मुझे भी ओफिसिअली इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के मास्टर डिग्री से नवाजा जाना था। समारोह के एक कोने में दोस्तों के साथ बैठे यकायक यादो का मौसम घुमरने लगा और मैं फ्लाशबैक में चला गया। दिल खो गया भोपाल शहर और माखनलाल यूनिवर्सिटी की उन यादो की सतरंगी दुनिया में जहाँ से वापस आने का कभी मन नहीं करता। दो सालों की यादों को चंद शब्दों में समेटना मुमकिन नहीं फिर भी कुछ यादगार लम्हों को तो आप सभी के साथ शेयर कर ही सकता हूँ।
"सात रंगों के शामियाने हैं,
दिल के मौसम बड़े सुहाने हैं।
कोई तदबीर भूलने की नहीं,
याद आने के सौ बहाने हैं।।"
हिंदुस्तान के दिल के नाम से मशहूर देश की सांस्कृतिक राजधानी भोपाल अपनी गंगा जमुनी तहजीब के लिए जाना जाता है। इस शहर की मिट्टी और आबो हवा अपने आगोश में आये हर अजनबी को अपना बना लेती है। १५ अगस्त २००४ को आँखों में नए सपने, नई उम्मीदें लिए चंद भावी पत्रकारों का सफ़र भोपाल आकर थमा और कुछ कदम इस अनजाने शहर में अपना आशियाना ढूँढने लगे। सीनियर्स ने हमारे आने का स्वागत जोरदार जश्न के साथ मनाया और संचार परिसर के आँगन में एक नया रिश्ता बना।
इस शानदार स्वागत के बाद शुरू हुआ संचार का यादगार सफ़र। क्लास शुरू होते ही मस्ती की पाठशाला शुरू हो जाती। टीचर क्लास में होते और स्टूडेंट्स रद्दी के कागज़ पे कमेंट्स लिखना शुरू कर देते। क्लासेज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में लगती और लड़के अपना मन कहीं और लगाने की कोशिश करते। दरअसल ब्रोडकास्ट जर्नलिज्म की नीलम परियो ने इन लड़को का जीना दुश्वार कर रखा था। अब क्या बताये इन लड़को के बारे में.....सब एक से बढ़कर एक तीसमारखां। अमित यूनिवर्सिटी का किशन कन्हैया। समीर की कातिल मुस्कान से नाजनिनो की नींद हराम।(ऐसा मैं नहीं मेरे साथवाले कहा करते थे)। संतोष का हमेशा बीजी विदाउट बिजनेस की छवि । हर्ष और विभावसु का साहित्यिक मिजाज़। राज और मनीष शुक्ला की मस्ती और बिनीत की मसखरी अच्छे अच्छो पर भारी थी। धनञ्जय उर्फ़ डी जे का अंदाज़ सबसे जुदा था। इस लिस्ट में ना आये और दोस्त भी कुछ कम ना थे। सभी अपने फन में माहिर। और हाँ भोलीभाली खुबसूरत चेहरे का अंदाजे बयां भी निराला था। कौशल को लड़कियों जैसा दिखना कतई मंज़ूर नहीं। शालिनी, अनु , अमिता और नविता को लड़कियों की नजाकत पसंत थी। दीप्ति की भोली मुस्कान। जीनत की दिलफेंक हंसी, अंकिता की सादगी, मेधा का डिफरेंट लुक, श्वेता और संयुक्ता की शोख अदायों के सभी कायल थे।
क्लासेज बंक कर हम ज्यादातर मटरगश्ती करते दूसरे डिपार्टमेंट में मिल जाते। लाइब्रेरी के अन्दर बैठने की बजाय बाहर हमें ज्यादा सुकून मिलता था। चाची की चाय और हकीम भाई के समोसे-बस इनके सहारे पूरा दिन कट जाता। जगहों को भी हमने खूबी के अनुसार नाम दिया था। ऐ पी आर डिपार्टमेंट, केव्स की जनकपुरी और लाइब्रेरी के बाहर के ठिकानो को लवर्स पॉइंट्स के नाम से जाना जाता था। हर दिन लवर्स पॉइंट्स से बेदखल करने की नाकाम साजिश रची जाती, लेकिन हम भी उस चार गज ज़मीन का मालिकाना हक किसी भी कीमत पर छोड़ने को राजी नहीं थे। दिन हो या रात, अरेरा कॉलोनी की गलियों से निकलकर हम सभी नौसिखिये पत्रकारों की टोली भोपाल शहर की हवाखोरी को निकल जाते। बड़ी झील, शाहपुरा लेक , गौहर महल, भारत भवन , हर जगह हमारी मौजूदगी दर्ज होती। बड़ी झील में एक ही नाव पर सैर सपाटा करते और देर शाम तक भारत भवन के नाटकों की सतरंगी दुनिया में खो जाते। १० नम्बर स्टाप के मार्केट में हम अपनी हर शाम गुलज़ार किया करते। जायका पान भंडार के सामने की सीढियों पर बैठकर हकीम भाई की चाय और समोसे का जायका लिया करते।
खैर वक्त बीता, दिन और हफ्ते गुजरे, महीनो ने भी ठहरने से इंकार कर दिया और देखते ही देखते पूरा एक साल कैसे निकल गया, पता ही ना चला। समय आ गया अपने सीनियर्स के साथ अंतिम रस्म अदायगी की। हमने भी अपने तजुर्बे को जायके का तड़का लगाकर और रंगारंग कार्यक्रम को मनोरंजन की चाशनी में डूबोकर ऐसा समां बांधा की बस सब देखते रह गए। खास कर नरेन्द्र, प्रभात और सुभाष के मुज़रे ने सीनियर्स मेम के दिलों पर भी छुरियां चला दी.
सीनियर्स ने अपनी राह पकड़ ली। गुरुकुल में अब एक नया रिश्ता जुड़नेवाला था। लेकिन इस बार किरदार बदल चुके थे। हमने भी जूनियर्स का खैरमकदम अपने ही अंदाज़ में किया। किसी का बर्थ डे हो या दीवाली....होली हो या दशहरा....इसी आँगन में साथ मिलकर मनाई...।
यूनिवर्सिटी में कुछ तकनिकी खामियां थी। जिसे चुस्त और दुरुस्त करने की पहल हम पॉँच दोस्तों ने की। किसी का नाम लेना मुनासिब नहीं क्यूकि संघर्ष के इस दौर में हम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सभी स्टूडेंट्स एक साथ यूनिवर्सिटी मैनेजमेंट, प्रशासन और टीचर्स के विरोध में खड़े थे। हम पांचो के ऊपर निलंबन की तलवार लटक रही थी। राज्यपाल से लेकर राष्ट्रपति तक को हमलोगों ने खतो के द्वारा इन खामियों से अवगत करा दिया था। अन्तः हमारी एकता की जीत हुई। उन्हें भी अहसास हुआ की हम सही है और वेलोग गलत। उसी समय मैंने जाना एक पत्रकार को सबसे पहले अपने हक के लिए लड़ना चाहिए। उसके बाद ही समाज को सही दशा और दिशा दी जा सकती है।
फिर तो टीचर्स के साथ रिश्ता ऐसा बना की हमें अपना घर कम याद आने लगा। किसी खास का जिक्र करना मुमकिन नहीं सभी टीचर्स अपने काम में सॉलिड। इतनी मस्ती और पढाई का असर साथ साथ दिखता था। हमने यूनिवर्सिटी की पहली विडियो न्यूज़ मैग्जीन 'केव्स टुडे' की नींव रख दी। हालाँकि काम इतना आसन नहीं था। हमारी लगन और मेहनत का आलम ये था कि हमने क्लास रूम को ही न्यूज़ रूम में तब्दील कर दिया था।
यूनिवर्सिटी के हर छोटे बड़े काम में हमारी हिस्सेदारी बढ़ चढ़ कर होती थी। एनुअल फंक्शन 'प्रतिभा' में जीत के कई रिकार्ड हमारी झोली में आये। लिखने और बोलने के अलावे सांसो को रोक देने वाले एक बेहद रोमांचक मुकाबले में ज्ञानतंत्र को हराकर हमारे केव्स ने पहली बार क्रिकेट का खिताब जीता। क्रिकेट के अलावा बैडमिन्टन में मेरा उम्दा प्रदर्शन प्रतिभा को कई मायनों में यादगार बना दिया। सिंगल्स के साथ सुभाष के साथ डबल्स और देबोश्री के साथ मिक्स डबल्स की खिताबी जीत कभी भूल नहीं सकता। दोस्तों का गलाफाड़ कर चिल्लाना ,वो पानी की बोतलें तोड़ना और हर पॉइंट्स पर कोर्ट में आकर गले लगाना...कौन भूल सकता है....
फिर आया गोवा, पुणे और मुंबई ट्रीप का दौर। दस दिनों का वक्त। लेकिन इन दस दिनों ने हमें ताउम्र ना भूल पाने की खुबसूरत यादे दी। ट्रेन का पूरा सफ़र मस्ती में काट देते। जहाँ किसी स्टेशन पे ट्रेन रुकी ,प्लेटफोर्म क्रिकेट का मैदान बन जाता। वो रेत के घरौंदे बनाना.....एक दूसरे को छेड़ना... रूठना-मनाना....दोस्तों को रेत के दरिया में डूबोना....समुन्द्र की आती-जाती लहरों के साथ देर तक खेलना....ट्रेन हो या क्रूज या फिर बस.......मस्ती का वही आलम......और फिर यादगार लम्हे बन दोस्तों के साथ कैमरे में कैद हो जाना......कुछ भी नहीं भूल पाए है हम.... लगता है जैसे कल की ही बात हो..... ।
धीरे धीरे वक्त हमारे हाथो से फिसलता चला गया और शहर को अलविदा कहने की तारीख मुकरर होने लगी। आखिरी सेमेस्टर क इग्जाम था। रात रात भर हबीबगंज स्टेशन के कैफेटेरिया में बैठकर पढाई होती और अहले सुबह घर लौटते। किताबो से हमेशा दूरी बनाये रखनेवाले को भी लाइब्रेरी के अन्दर आना पड़ा। जूनियर्स ने चुपके चुपके हमारी विदाई की तैयारी कर ली थी। उन्हें भी हमारे दर्द का अहसास था.....हमारी ज़िन्दगी का सबसे यादगार पल हमसे रुखसत होने वाला था....इस गुरुकुल में मस्ती के दौर का ये हमारा आखिरी पड़ाव था.....
परीक्षाये ख़त्म हुई और सबकुछ एक झटके में हमसे अलग हो गया। वो मस्ती छूटी.....गलियां पीछे रह गई.....शहर ने भी हाथ छुड़ा लिया.....दोस्तों का साथ भी अब नहीं रहा......अपनी अपनी मंजिल की तलाश में सभी देश के कोने कोने में फ़ैल गए.....लेकिन दिलो के अरमान नहीं गए.....वक्त रेत की तरह हाथ से फिसल गया......लेकिन दोस्तों के साथ अनछुए रिश्तो का अंत नहीं हो पाया......
माखनलाल यूनिवर्सिटी आज एक गगनचुम्बी ईमारत में आ गया है। पूरी यूनिवर्सिटी एक ही छत के नीचे। लेकिन हमारी जान तो अरेरा इ २२ से इ २८ की गलियों में बसती है.....हमारी सांसे इन्ही चारदीवारियों में अटकी है......जिसके आँगन में कभी हमने भविष्य के सपने बुने थे..... सुख दुःख में एक साथ खड़े थे......इसी आँगन ने इतना कुछ दिया जिसकी बदौलत आज हम सब एक अच्छे मुकाम पर हैं.....
लेकिन उस आँगन में ना होने का दर्द एक टीस बनकर उभरता है.......ये कसक उनके दिलो में भी है जिनके ठेले -खोमचो की शान हमसे हुआ करती थी......चाची की चाय आज भी बनती है लेकिन इसमें वो पहले वाली मिठास नहीं आती..... इस चाय में उस आम के पेड़ की छाँव नहीं जिसके नीचे बैठ कर हम चुस्कियों के साथ चुहलबाजी और फ्लर्ट किया करते थे.....हकीम भाई के समोसे आज भी उतने ही लाजबाव है लेकिन उसकी तारीफ करनेवाले हमारे मस्ती कि पाठशाला का साथ नहीं रहा.....आज भी बड़ी झील के उस पार सूरज निकलता है लेकिन उस झील में हम दोस्तों की नाव नहीं होती......अब तो बस एक दूसरे की यादो में आकर सताते हैं.......ज़िन्दगी की आपाधापी से फुर्सत के चंद पल निकलकर उन रिश्तो को फिर से जीने की एक बेमानी सी कोशिश कर लेते है.....
लेकिन दिल है की मानता नहीं.....उन्ही चीजों के लिए मचलता है जो उसे मिल नहीं सकती......अब इस नादाँ को कौन समझाये की सिर्फ यादों में रह गए हैं वो लम्हें.....अब दिल बस ढूंढता है फुर्सत के रात दिन......लेकिन वो कहते हैं ना---
"अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं,
रुख हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं..."
"इस अंतिम लाइन के माध्यम से मैं अपने दिल के करीब रहने वाले मित्रो से कुछ कहना चाहता हूँ। अगर मेरे इस लेख से किसी की भावना को ठेस लगती है या लगी है तो मैं तहे दिल से क्षमाप्रार्थी हूँ। मेरी ऐसी कोई मंशा नहीं है। मैंने उन दिनों की यादो को जैसा महसूस किया, वैसे ही शब्दों का जामा पहनाया है॥"
धन्यवाद...।
24 टिप्पणियां:
धीरे धीरे वक्त हमारे हाथो से फिसलता चला गया और शहर को अलविदा कहने की तारीख मुकरर होने लगी। आखिरी सेमेस्टर क इग्जाम था। रात रात भर हबीबगंज स्टेशन के कैफेटेरिया में बैठकर पढाई होती और अहले सुबह घर लौटते। किताबो से हमेशा दूरी बनाये रखनेवाले को भी लाइब्रेरी के अन्दर आना पड़ा। जूनियर्स ने चुपके चुपके हमारी विदाई की तैयारी कर ली थी। उन्हें भी हमारे दर्द का अहसास था.....हमारी ज़िन्दगी का सबसे यादगार पल हमसे रुखसत होने वाला था....इस गुरुकुल में मस्ती के दौर का ये हमारा आखिरी पड़ाव था.....
आपकी lekhni bhot ही rochak लगी ..bhot ही prabhavsali और umda lekhan है आपका ....इन panktiyon chu लिया....
लेकिन दिल है की मानता नहीं.....उन्ही चीजों के लिए मचलता है जो उसे मिल नहीं सकती......अब इस नादाँ को कौन समझाये की सिर्फ यादों में रह गए हैं वो लम्हें.....अब दिल बस ढूंढता है फुर्सत के रात दिन......लेकिन वो कहते हैं ना---
"अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं,
रुख हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं..."
साहित्यकार जब अपने गुज़रे जमाने की यादें लिखते हैं तो मुझे उनको पढने में बहुत आनंद आता हैकभी कभी साहित्यिक पत्रिकाओं में इस प्रकार के विवरण पढने को मिल जाया करते है /आपका लेख पढ़ कर बहुत अच्छा लगा
पात्रो के नाम और शहर बदल दिए जाये तो आप की कहानी बिलकुल मेरी अपनी कहानी जैसी है, शानदार लिखा है यादों को जितनी बेहतरीन तरीके से आपने संजोया है, काबिलेतारीफ है,
तारीफ़ के लिए शुक्रिया अखिलेश जी...यादें तो बस यादें है..चाहे मेरे हो या आपके या फिर किसी और के..सभी को इस दौर से गुजरना होता है और जब सुनहरे दिन बीत जाते है तो बस यादें बन हमारी ज़िन्दगी का हिस्सा बन जाते है..
वो कहते है ना--
"करोगे याद तो हर बात याद आएगी.गुजरते वक्त की हर मौज ठहर जाएगी.."
bahut khub samer bhai.Aapne bahut hi acha likha hai. Ye yade cavs 2004 to 2006 ke sabhi chatro se judi hui hai. Khas kar cavs ke chatro ke saath. Lekin kya kare waqt ne to kabhi kisi ka intzar nahi kiya hai.aapne ne sach kaha sab kuch badal gaya hai waha. college parisar ke saath saath chai ka swad bhi.
बहुत खूब समीर जी... बहुत दिनों बाद ऐसा शानदार आलेख पढने को मिला है. ऐसा लगा मानो अपनी कहानी हो वो भी बस अभी अभी की बात हो. आँखों से पानी छलकने की नौबत आगई थी, कलेजा मुह को आ गया था और पूरा जिस्म रोमांचित हो उठा.
सच दोस्ती और मस्ती इसी को कहते हैं. जहाँ न जीने की जंग न मरने की आह. बस हर पल जवानी.. शायद यही है जवानी.
आलेख लम्बा है पर इतना खूबसूरत कि कब ख़त्म हो गया पता ही नहीं चला. हर लाइन में मस्ती, जज्बात और जुदाई की टीस थी.
आभार.
शहर ने भी हाथ छुड़ा लिया..... समीर जी उस शहर ने इस आरोप से इंकार किया... उस ने कहा की हर साल लोग मुझे छोड़ चले जाते हैं मै उन स्टूडेंट्स की राह आज भी देखा करता हूँ. वो चाची की चाय, हकीम भाई के समोसे आज भी उन चेहरों को ढूंढ़ते हैं. हबीबगंज स्टेशन के कैफेटेरिया अब भी रोशन है पढने वालों के लिए..... आप के ब्लॉग को पढने के बाद इन बेजुबानो ने मुझे ख़त दिया आप को देने के लिए...........
sir, convocation ka poora samaroh bahut achcha raha. is post me aapne bhopal ki hamari university ke har lamhe ko behad khoobsurati ke saath kaid kiya hai.
post achchi lagi.....
अरे सैम, मेरा क्रेडिट लाइन तो दिया ही नहीं....... पूरी फिल्म अभी बाकि है मेरे दोस्त...
वैसे बेशकीमती यादों कों खुबसूरत तरीके से परोसने के लिए शुक्रिया. इस लेख पर इतने विचार आयेंगे, इसका मुझे अंदाजा नहीं था. सच बताऊँ तो बहुत अच्छा लगा. दिल के करीब जो चीज होती है, वो हमेशा गहरा प्रभाव छोड़ती है. वैसे सभी के पास अपने-अपने अनुभवों की यादें होती हैं, लेकिन बयां करने के तरीके में फर्क होता है. इन्सान की भावनाएं और उसके दिल के अरमान उसे अंदाजे बयां सिखाते हैं. तुमने कुछ जरुरी बातें यहाँ से गायब कर दिया हैं. कहीं-कहीं पर तारतम्य टूटता हुआ महसूस हुआ. मसलन... इन पंक्तियों में...
१५ अगस्त २००४ को आँखों में नए सपने, नई उम्मीदें लिए चंद भावी पत्रकारों का सफ़र भोपाल आकर थमा और कुछ कदम इस अनजाने शहर में अपना आशियाना ढूँढने लगे।...........सीनियर्स ने हमारे आने का स्वागत जोरदार जश्न के साथ मनाया और संचार परिसर के आँगन में एक नया रिश्ता बना।
तुम इसे और भी बेहतर बना सकते थे. दिल के एहसासों कों उसी दर्द के साथ लिखो जैसे ये अन्दर है. वैसे लिखते वक्त मात्राओं पर थोडा धयान दो. इस माध्यम पर सबकी नज़र जाती है, इसलिए इसका खास खयाल रखो.
तुम्हारा शुभेच्छु
अमित.....
क्या खूब लिखा है आपने समीर जी. आपका ये आलेख वाकई दिल को छू लिया.इसी तरह के जानदार अगले पोस्ट के इंतजार में.
आपने बहुत अच्छा लिखा है समीर जी.
पत्रकरिता की पढाई के दौरान अपनी यादो को आपने जिस तरह शब्दों में पिरोया है,वो वाकई काबिले तारीफ है.ऐसे ही पोस्ट लिखते रहिये..
आभार..
बहुत उम्दा लेख लिखा है आपने. आगे भी अपने संस्मरण को अपने जादुई शब्दों से सजाते रहिये..वैसे भी आजकाल इस तरह के पोस्ट बहुत कम पढने को मिलते हैं. बधाई....
बहुत उम्दा लेख लिखा है आपने. आगे भी अपने संस्मरण को अपने जादुई शब्दों से सजाते रहिये..वैसे भी आजकाल इस तरह के पोस्ट बहुत कम पढने को मिलते हैं. बधाई....
RAJEEV KUMAR GANDHI
माखनलाल में बिताए स्वर्णिम दिनों को आपने शब्दों में पिरो कर एक ऐसी दास्तां लिख दी...जो इस यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले सभी छात्र-छात्राओं के जेहन में हैं..माखनलाल विश्वविद्यालय में बिताए वे दो साल खट्टे-मिठ्ठी अनुभवों से पटे हैं...जिनको शब्दों में बयां कर उसे अपना जीवंत रूप दिया है...ये काबिलेतारीफ है...कुछ ऐसे ही बेशकिमती पल मेरे भी रहे इस गुरूकुल में रहे..जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता..सतरंगी चैनलों की दौड़ और काम की व्यस्ता ने जरूर उन पलों को धूमिल कर दिया है...लेकिन यह कहानी फिर से मेरी खोई दास्तां को उभार कर सामने लाने में सहायक साबित हुई है..जिसे एक-एक कर मैं अपने यादों के झरोखों को टटोलने लगा हूँ..लिहाजा ऐसे में उन पलों को याद कर काफी रोमांचित भी महसूस कर रहा हूँ..इस लेख के लिए आपको धन्य़वाद...
भोपाल कैंपस में पढा़ई के वो पल...
किसी का हँसना..किसी का रूठना..
फिर भी सभी है.अपने-अपने में मस्त
लाइब्रेरी के बाहर वो मटरगस्ती...
तो हकीम चाचा की चाय की चुस्की
ये दास्तां हैं..वो
जिससे दूर होकर भी नहीं हो पाएगें दूर
क्योंकि आपने अपनी शब्दों से कर दिया है..
फिर से उसी दुनिया में लौटने को मजबूर..
थैंक्यू समीर सर
क्या कहूँ निशब्द हूँ ..क्यों हर किसी की जिंदगी में कभी -कभी एक से मुकाम आते हैं ..खैर बहुत भावप्रद लिखा है आपने.बहुत सुन्दर
अति सुन्दर आलेख. दिल को छू लिए आपने. आभार.
अति सुन्दर आलेख. दिल को छू लिए आपने. आभार.
Bahut hi badhiya likha hai bhai!!! Dil ko choo gaya.
रस्ते घर गलियाँ वाले अमित जी अपनी राय देने के लिए शुक्रिया..आपसे कुछ कहना चाहता हूँ.कुछ चीजे ऐसी है जिसे ब्लॉग पर समेटना बहुत मुश्किल है.इसलिए सारी यादो को एक ब्लॉग पर लिखना मुमकिन नहीं.जहाँ तक क्रेडिट लाइन की बात है तो आपको थोड़ा इंतजार करना होगा क्यूंकि जब मेरी अगली पोस्ट पब्लिश होगी तो उससे पहले आपके सारे सवालो का जवाब मिल जाएगा.
आभार..
waah,
jesa naam vesa srujan....
behtreen he..
taarif ke baad aapki rachna par kuchh likhna bhi chahta hu kintu aaj hi 20 dino baad apne gaav se louta hu, samay nikaal kar likhunga jarur,
dhnyavaad swikaare achchi rachna ke liye.
Shabd Jab Jubaa ban jaaye to hakikat kya baya karein,
Itni Himmat hi kahan ki un lamhon ko ruswa karein,
Itni khushiyan itne gum sab ek saath hi mil gaye,
ab kaise un yaadon ko in yaadon se judaa karein!!!!!!
master piece comes once in life and this must have touched every souls If I am right please do respond me on ajaygautamatry@gmail.com
Best regards
-Ajay Gautam
विश्वविद्यालय की यादें तो हमेशा सुखद होती हैं।
टिप्पणी के लिए आप सभी का धन्यवाद...दरअसल इस लेख को आप तक मैंने और अमित सिंह ने पहुँचाया था..अमित आजकल इंडिया टीवी में अपनी सेवा दे रहे है..और मेरे अच्छे मित्र हैं..हमलोग माखनलाल यूनिवेर्सिटी में बिताये अपने दो साल के ऊपर एक शौर्ट फिल्म बना रहे हैं..तो सोचा उसकी स्क्रिप्ट पहले आप सभी को सुनाया जाये...तो ये स्क्रिप्ट दोनों ने मिलकर लिखी है..जब फिल्म पूरी हो जायेगी तो बताऊंगा..
धन्यवाद...
aap ki soch hum sab sa pra hai
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