मंगलवार, 12 मार्च 2013

और हम लोगों ने वक्त के फासले को अपने बीच आने न दिया…



तारीख - 8 मार्च 2013। समय- दोपहर लगभग 2 बजे।
मोबाईल पर मैसेज आता है-मिलना चाहते हो तो झारखंड सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी आ जाओ, मैं तुम्हारे शहर में हूँ। मैसेज पढ़ते ही मेरे चेहरे पर चमक आ गयी और होंठों पर हंसी। गुजरा वक्त तक़रीबन 9 साल आँखों के सामने ऐसे तैरने लगा मानो कल की ही तो बात है। 
तय किया कि इतने सालों के बाद उस कातिल मुस्कान के दीदार का मौका हाथ से नहीं जाने दूंगा। उनसे कहा कि आज नहीं कल पक्के से मुलाकात होगी और जरूर होगी। पटना से रांची ट्रेन की टिकट कैंसिल करवाया और बस की टिकट लेकर अगले सुबह 5 बजे रांची।
9 मार्च को ठीक 7 बजकर 5 मिनट पर मोबाईल की घंटी बजी। उधर से आवाज़ आती है - समीर तुम्हारा क्या प्रोग्राम है। कब आ रहे हो। मिलने का समय तय होता है 12 बजे के बाद। स्थान- वही झारखंड सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी, रांची। उनसे मिलने की व्यग्रता में ऑटो और सिटी बस के झंझट से अपने को दूर रखकर 35 किलोमीटर का सफ़र बाईक पर तय किया।
ठीक 12 बजकर 30 मिनट पर सीधे सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी के मास कॉम डिपार्टमेंट के डायरेक्टर्स केबिन में इंट्री लिया तो मेरे कुछ बोलने से पहले ही डायरेक्टर संतोष तिवारी सर बोल पड़ते हैं- आप मि. समीर हैं ना। मुझे सुखद आश्चर्य होता है कि इन्हें मेरा नाम भी मालूम है जबकि हमलोग इससे पहले कभी मिले नहीं। साथ बैठे टीचर परमवीर सर जी कहते हैं - हमलोग आपका ही इंतजार कर रहे थे।
आभास हो गया कि मेरे बारे में इनलोगों को बताया जा चुका है। फिर तीनों के बीच मीडिया पर बहस शुरू हो जाती है। लेकिन मेरी आँखें बार बार उनको ही खोज रही होती है जिनसे मिलने को लेकर दिल इतना बेसब्र हुए जा रहा था।
थोड़ी देर बाद उनकी इंट्री हुई। अरे समीर कब आये। अपने उसी चिरपरिचित अंदाज़ और मोहक मुस्कान के बीच बीते 9 सालों का पल एक एक कर गुजरता जाता है और हमलोग उन्हीं यादों, उन्हीं पलों में खो जाते हैं जैसे उस दौर को जिया था। शायद इससे यादगार दिन बीते कुछ समय में रांची में नहीं हुआ था।
यूनिवर्सिटी से निकलने के बाद हमलोग लंच के लिए काठी कबाब पहुंचे। यहाँ मटन और चिचेन ऑर्डर कर भोपाल के हकीम भाई की यादें ताज़ा की।
वक्त कम था क्यूंकि उन्हें शाम 5 बजे राजधानी पकड़नी थी। स्टेशन पहुँचते पहुँचते 4. 30 बज चुके थे। उनके बाद बातों की सरगर्मी के बीच हमलोग बिरसा रेस्टोरेंट में ठंडा लेकर गले और पेट को ठंडक पहुंचाई। ठीक 5 बजकर 10 मिनट पर ट्रेन ने अपने गंतव्य की और कदम बढ़ा दी और मैं हाथ हिलाता फिर से वापस उसी घिसे पिटे रूटीन की तरफ आया। 
ऑफिस लौटते वक्त रस्ते भर सोचता रहा कि- सालों साल गुजरते रहे, वक्त कभी ठहरा ही नहीं, मुट्ठी की रेत सा फिसलता चला गया।। वक्त के फासले बढ़ते गए और हम लोगों ने वक्त के फासले को अपने बीच आने न दिया।।।
और हाँ देवव्रत सर आपका बहुत बहुत धन्यवाद जो इतने सालों बाद आपसे मुलाकात हुई। वो भी आश्चर्यजनक रूप से मेरे छोटे से शहर में। जिसकी कल्पना मैंने नहीं की थी। निश्चित रूप से आपके साथ बिताये ये 5 घंटे सुखद यादें बनकर मानसपटल पर हमेशा बनी रहेंगी।

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