शनिवार, 3 सितंबर 2011

हो सके तो कभी हमारे घर भी आना साहब..!!!



बहुत दिनों बाद एक बार फिर आप सभी से मुखातिब हूं. माफ़ी चाहूंगा इतने लम्बे अरसे से आपके लिए कोई चिट्ठी नहीं ला सका. एक बार फिर एक ईमानदार कोशिश रहेगी की आपके पास जल्दी जल्दी चिट्ठी लाने का प्रयास किया जाये.
खैर.. इस बार की चिट्ठी सड़क के किनारे रहने वाले उन बच्चों के नाम है जो खानाबदोश सी ज़िन्दगी जीते हैं.

एक मुट्ठी मरियल भात भर भूख,
सरियल पानी में बजबजाती मक्के की रोटी जैसी ज़िन्दगी,
नंगे भविष्य की पंगत लगाकर गाहे बगाहे बैठते हैं हम,
हो सके तो कभी हमारे घर भी आना साहब..!!!

उम्मीदों के मरघट में एक अधमरी बस्ती है,
मौत के झील में दिन रात उड़ती है,
साँस भर सब्र और छाती भर मातम,
ना छत, ना चौखट, ना कोई आँगन,
हो सके तो कभी हमारे घर भी आना साहब..!!!

हमारा गुज़रा एक सवाल है, हमारा आज एक सवाल है,
सदियों के सवाल का हम ज़िंदा इश्तेहार हैं,
सपने बोने वाले तुम हमारा भी तो जवाब दो,
खानाबदोश सी ज़िन्दगी और कातर नैन बाट जोहते हैं,
हो सके तो कभी हमारे घर भी आना साहब..!!!

धन्यवाद...

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