मंगलवार, 6 सितंबर 2011

बेनकाब हुई राजनीतिक पार्टियां


भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में अभी आधी जीत हुई है. सरकार ने आन्दोलन को कुचलने की लाख कोशिश की, पर जनाक्रोश के आगे उसे झुकना पड़ा. इस पूरे आन्दोलन के दौरान सभी राजनीतिक पार्टियों का असली चेहरा भी लोगों ने देख लिया. आन्दोलन के दौरान सत्ता पक्ष का बदलता रंग देखने लायक था. प्रधानमंत्री द्वारा अन्ना को लिखी गई चिट्ठी से साफ़ हो गया था कि सरकार इस मुद्दे को राजनीतिक दांव पेंच में उलझाना चाहती है. किसी भी दल ने जन लोकपाल बिल का खुलकर समर्थन नहीं किया.
सवाल ये है कि आखिर सरकार चाहती क्या है? क्या सरकार जनता से परे है? राजनीतिक से प्रेरित इस हद तक साजिश की गई कि अन्ना पर ही भ्रष्टाचार के आरोप लगा दिए गए. सरकार भूल गई कि वह अन्ना टीम को नहीं, बल्कि सवा सौ करोड़ जनता को बेवकूफ बना रही है.
इसका दूरगामी परिणाम उन्हें चुनावों के दौरान भुगतना पड़ेगा. कोई भी राजनीतिक पार्टी भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के मूड में नहीं है, वरना राजनेताओं को घोटाला करने का मौका कहां मिलेगा.
दैनिक जागरण, रांची (30 अगस्त 2011) में अन्ना का आन्दोलन और उसकी परिणति पर बहस कॉलम में प्रकाशित
धन्यवाद...

शनिवार, 3 सितंबर 2011

हो सके तो कभी हमारे घर भी आना साहब..!!!



बहुत दिनों बाद एक बार फिर आप सभी से मुखातिब हूं. माफ़ी चाहूंगा इतने लम्बे अरसे से आपके लिए कोई चिट्ठी नहीं ला सका. एक बार फिर एक ईमानदार कोशिश रहेगी की आपके पास जल्दी जल्दी चिट्ठी लाने का प्रयास किया जाये.
खैर.. इस बार की चिट्ठी सड़क के किनारे रहने वाले उन बच्चों के नाम है जो खानाबदोश सी ज़िन्दगी जीते हैं.

एक मुट्ठी मरियल भात भर भूख,
सरियल पानी में बजबजाती मक्के की रोटी जैसी ज़िन्दगी,
नंगे भविष्य की पंगत लगाकर गाहे बगाहे बैठते हैं हम,
हो सके तो कभी हमारे घर भी आना साहब..!!!

उम्मीदों के मरघट में एक अधमरी बस्ती है,
मौत के झील में दिन रात उड़ती है,
साँस भर सब्र और छाती भर मातम,
ना छत, ना चौखट, ना कोई आँगन,
हो सके तो कभी हमारे घर भी आना साहब..!!!

हमारा गुज़रा एक सवाल है, हमारा आज एक सवाल है,
सदियों के सवाल का हम ज़िंदा इश्तेहार हैं,
सपने बोने वाले तुम हमारा भी तो जवाब दो,
खानाबदोश सी ज़िन्दगी और कातर नैन बाट जोहते हैं,
हो सके तो कभी हमारे घर भी आना साहब..!!!

धन्यवाद...