"इस धधकती चोटियो की लम्बी है व्यथा...
पीर कितनी सह रहे है क्या किसी को है पता..."
मेरे कंधे पर टूटी हुई लाठी की तरह किसी ने अचानक हाथ रखा। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो एक ८०-८५ साल के बाबा की सूनी आँखें मानो बोल रही हो।"कितना शानदार लगता है तिरंगा जब इमारतो पर लहराया जाता है, स्कूल कॉलेज और संस्थानों में फहराया जाता है, राजनेता साल में एकाध दिन तिरंगा फहराते हैं, मिठाइयां बंटते हैं और अपना कर्त्तव्य भूल जाते है। दरअसल ये दिन २६ जनवरी यानि गणतंत्र दिवस का था और जगह थी रांची का मोराबादी मैदान। जहाँ महामहिम राज्यपाल जी झंडा फहरा रहे थे। मेरे कंधे पर हाथ रखने वाले वो शख्स थे आशीर्वाद टाना भगत। जो संघर्षो की यादो के साथ जिंदा हैं। वो सेनानी हैं हमारे स्वतंत्रता संग्राम के।
अनायास ही मैं चिंतन में पर गया और सोचने लगा। ये त्यौहार उन्ही जैसे लोगो की बदौलत मनाया जाता है जिन्होंने आज़ादी के हवन कुंड में अपने प्राणों की आहुति दी है। इसमें कितने फ़ना हुए गिनना मुश्किल है लेकिन जो आज जिंदा हैं उनकी सुध लेनेवाला कोई नहीं। गुजरे वक्त की गलियो में अगर इनलोगों की यादो के सहारे जाया जाए तो अंग्रेजो के जुल्म की स्याह गलियो को देखकर जिस्म के रोंगटे खड़े हो जाते है।
लेकिन इसके एवज में हमलोगों ने उनको जो दिया वो नाकाफी नहीं...? इनलोगों ने अपना कल हमारे आज की खातिर स्वाह कर दिया। जब ये इन तस्वीरो में कैद नहीं थे और फिरंगियो से दो दो हाथ कर रहे थे। उस वक्त इन्होने महज आज़ादी के ख्वाब देखे होंगे और आज़ादी के बाद ज़िन्दगी के कई सुहाने सपने बुने होंगे। आज की तस्वीर बदरंग है। इनका ऋण चुकता नहीं हो सकता लेकिन कुछ फ़र्ज़ तो अदा हो ही सकता है। आवाम की बात तो छोडिये आशीर्वाद टाना भगत और इनके जैसे तमाम सपूतो और सेनानियो की बेवाओ की बात की जाए तो सरकार फ़र्ज़ अदाएगी की रस्म निभाने में भी कंजूसी ही करती है। पेंशन की व्यवस्था हो या सरकारी नौकरियो में इनके परिवार की तीसरी पुश्त की हिमायत। सेनानियो के आश्रितों के लिए २ फीसदी आरक्षण का झुनझुना हो या वीरता पुरस्कारों का गोरखधंधा। कागजी सच कुछ भी हो लेकिन सरकारी सहुलिअतो और अपने आत्मसम्मान की बातो को आज ये कटघरे में खडा करते नज़र आ रहे है। ऐसा लगता है की इन बहादुर सपूतो पर सरकारी सुविधाओ और स्वतंत्रता सेनानी का तमगा का अहसान न ही किया जाता तो बेहतर होता।
सरकारी सच, लोगो की सोच और ज़मीनी हकीकत में बड़ा फर्क होता है। जंगे जवानों की जुस्तजू आज़ादी की ज़मीं में फ़ना हो रही है। लेकिन जो जंगे आज़ादी के जवान उम्र के हथियारों से लैस इस वक्त ज़िन्दगी के सरहद पर मौत की पहरेदारी कर रहे है, उन लोगो के प्रति क्या हमारा फ़र्ज़ नहीं बनता की इन वतनपरस्तो को गणतंत्र के इस मौके पर उन तोहफों से नवाजा जाए जो उनके लिए उम्मीद से दोगुना साबित हो। अगर ऐसा ही चलता रहा तो आनेवाली पीढी को कुर्बानी के सच्चे किस्से कल्पनाओ की कोरी बकवास लगेंगे।
धन्यवाद....॥
15 टिप्पणियां:
समीर जी, मैं आपके आलेख को पढ़ने के बाद कुछ और भी इसी तरह का ढूंढ रहा था, तो एक आर्टिकल मिला। मैं यहां लिंक दे रहा हूं। इसमें साधुओं और उलेमाओं की कुर्बानियों को भुला दिये जाने की दास्तां है। उम्मीद है आपको भी पसंद आयेगी।
http://shaheedeazam.blogspot.com/2007/10/blog-post_18.html
aaj kee peedee ko in sabse matlab hi kahaan hai....??
''तुमने शूली पे लटके जिसे देखा होगा,
वक्त आएगा वही शख्स मसीहा होगा.''
पर वक्त तो बीत चुका है, अब किस वक्त का इंतज़ार है. जिन्हें मसीहा का दर्जा मिलनी चाहिए वो दो जून की रोटी के लिए खेतों या सरकारी दरवाजों की ख़ाक छानने को मजबूर हैं. भला हो इस देश का. मार्मिक और जागरूकता बढ़ाने वाली पोस्ट के लिए बहुत बहुत बधाई.
"सरकारी सच, लोगो की सोच और ज़मीनी हकीकत में बड़ा फर्क होता है। जंगे जवानों की जुस्तजू आज़ादी की ज़मीं में फ़ना हो रही है। लेकिन जो जंगे आज़ादी के जवान उम्र के हथियारों से लैस इस वक्त ज़िन्दगी के सरहद पर मौत की पहरेदारी कर रहे है, उन लोगो के प्रति क्या हमारा फ़र्ज़ नहीं बनता की इन वतनपरस्तो को गणतंत्र के इस मौके पर उन तोहफों से नवाजा जाए जो उनके लिए उम्मीद से दोगुना साबित हो। अगर ऐसा ही चलता रहा तो आनेवाली पीढी को कुर्बानी के सच्चे किस्से कल्पनाओ की कोरी बकवास लगेंगे। "
वाह...बहुत खूब भाई...बहुत खूब.....आज आप के ब्लॉग पर पहली बार आया हूँ...मेरी दिलचस्पी राजनीती में नहीं है लेकिन आप के इस लेख ने मुझे बहुत प्रभावित किया है...आप की सोच और ज़ज्बे को मैं सलाम करता हूँ....मेरा विश्वाश है की आप से युवाओं से ही इस देश की तकदीर बदल सकती है...इश्वर सदा आपके साथ रहे...
नीरज
शहीदों पर आपके विचार सम्मानीय हैं......
आज़ादी के जवान उम्र के हथियारों से लैस इस वक्त ज़िन्दगी के सरहद पर मौत की पहरेदारी कर रहे है, उन लोगो के प्रति क्या हमारा फ़र्ज़ नहीं बनता की इन वतनपरस्तो को गणतंत्र के इस मौके पर उन तोहफों से नवाजा जाए जो उनके लिए उम्मीद से दोगुना साबित हो। अगर ऐसा ही चलता रहा तो आनेवाली पीढी को कुर्बानी के सच्चे किस्से कल्पनाओ की कोरी बकवास लगेंगे.... Samir ji bhot acche zazbat hain aapke...desh k ek jagruk nagrik hain aap ...aapka ye zazba bna rahe...!!
बहुत अच्छा लिखा है.आज आजाद भारत में शहीदों को याद करने में भी राजनीति हावी हो गई है.लेकिन खुशी इस बात की है कि कुछ लोग आज भी देश के शहीदों को दिल से याद करतें है...
अच्छा लेखनी है इससे अप्प कि देश भक्ति झलकती है .आपकी अगली चिट्टी के इन्तजार में ...
नौकरशाहों की लालफीताशाही या फिर आजाद देश के नागरिको की बेचारगी। देश के ६०वे गणतंत्र दिवस के मौके पर भी आज़ादी के ऐसे दीवानों का अंजाम और इंतजाम मुकम्मल नहीं।
आज के हालात में ये पंक्तियाँ सही प्रतीत होती है ..
बहुत अच्छा लिखा है आपने....
"इस धधकती चोटियो की लम्बी है व्यथा...
पीर कितनी सह रहे है क्या किसी को है पता..."
बहुत खूब लिखा है आपने. इसके भाव अति सुंदर हैं
ऐसी ही कविता के इंतजार में .......
bahut sahi likha hai aapne sameer..zajba kayam rakhen
शहीदों को सलाम.... आपने इस आलेख के जरिये दिल को छू लिया है. आभार.
आपका पोस्ट हमेशा उत्साहवर्द्धक होता है. इस बार भी आपने बहुत ही अच्छा पोस्ट लिखा है. बधाई.
kya khoob likha hai..aapka post dil ko chhu gayi..
समीर जी,
आपका शहीदों पर लिखा आलेख काफी सराहनीये
और दिल को छू लेने वाला है| आशा है इसी तरह
और भी विचारनिए लेख पढ़ने को मिलते रहेंगे|
ब्रद्ध सज्जन का कंधे पर हाथ रखने के बाद आपका आकस्मिक नहीं वल्कि स्वाभाविक चिंता स्वागत योग्य है किंतु आपके चिंतन पर अमल हो पायेगा संदेहास्पद है
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