समीर की चिट्ठी
जुबाँ बनके ये करती हैं दिल की बात...
मंगलवार, 27 जून 2017
मंगलवार, 12 मार्च 2013
और हम लोगों ने वक्त के फासले को अपने बीच आने न दिया…
तारीख - 8 मार्च 2013। समय- दोपहर लगभग 2 बजे।
मोबाईल पर मैसेज आता है-मिलना चाहते हो तो झारखंड सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी आ जाओ, मैं तुम्हारे शहर में हूँ। मैसेज पढ़ते ही मेरे चेहरे पर चमक आ गयी और होंठों पर हंसी। गुजरा वक्त तक़रीबन 9 साल आँखों के सामने ऐसे तैरने लगा मानो कल की ही तो बात है।
तय किया कि इतने सालों के बाद उस कातिल मुस्कान के दीदार का मौका हाथ से नहीं जाने दूंगा। उनसे कहा कि आज नहीं कल पक्के से मुलाकात होगी और जरूर होगी। पटना से रांची ट्रेन की टिकट कैंसिल करवाया और बस की टिकट लेकर अगले सुबह 5 बजे रांची।
9 मार्च को ठीक 7 बजकर 5 मिनट पर मोबाईल की घंटी बजी। उधर से आवाज़ आती है - समीर तुम्हारा क्या प्रोग्राम है। कब आ रहे हो। मिलने का समय तय होता है 12 बजे के बाद। स्थान- वही झारखंड सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी, रांची। उनसे मिलने की व्यग्रता में ऑटो और सिटी बस के झंझट से अपने को दूर रखकर 35 किलोमीटर का सफ़र बाईक पर तय किया।
ठीक 12 बजकर 30 मिनट पर सीधे सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी के मास कॉम डिपार्टमेंट के डायरेक्टर्स केबिन में इंट्री लिया तो मेरे कुछ बोलने से पहले ही डायरेक्टर संतोष तिवारी सर बोल पड़ते हैं- आप मि. समीर हैं ना। मुझे सुखद आश्चर्य होता है कि इन्हें मेरा नाम भी मालूम है जबकि हमलोग इससे पहले कभी मिले नहीं। साथ बैठे टीचर परमवीर सर जी कहते हैं - हमलोग आपका ही इंतजार कर रहे थे।
आभास हो गया कि मेरे बारे में इनलोगों को बताया जा चुका है। फिर तीनों के बीच मीडिया पर बहस शुरू हो जाती है। लेकिन मेरी आँखें बार बार उनको ही खोज रही होती है जिनसे मिलने को लेकर दिल इतना बेसब्र हुए जा रहा था।
थोड़ी देर बाद उनकी इंट्री हुई। अरे समीर कब आये। अपने उसी चिरपरिचित अंदाज़ और मोहक मुस्कान के बीच बीते 9 सालों का पल एक एक कर गुजरता जाता है और हमलोग उन्हीं यादों, उन्हीं पलों में खो जाते हैं जैसे उस दौर को जिया था। शायद इससे यादगार दिन बीते कुछ समय में रांची में नहीं हुआ था।
यूनिवर्सिटी से निकलने के बाद हमलोग लंच के लिए काठी कबाब पहुंचे। यहाँ मटन और चिचेन ऑर्डर कर भोपाल के हकीम भाई की यादें ताज़ा की।
वक्त कम था क्यूंकि उन्हें शाम 5 बजे राजधानी पकड़नी थी। स्टेशन पहुँचते पहुँचते 4. 30 बज चुके थे। उनके बाद बातों की सरगर्मी के बीच हमलोग बिरसा रेस्टोरेंट में ठंडा लेकर गले और पेट को ठंडक पहुंचाई। ठीक 5 बजकर 10 मिनट पर ट्रेन ने अपने गंतव्य की और कदम बढ़ा दी और मैं हाथ हिलाता फिर से वापस उसी घिसे पिटे रूटीन की तरफ आया।
ऑफिस लौटते वक्त रस्ते भर सोचता रहा कि- सालों साल गुजरते रहे, वक्त कभी ठहरा ही नहीं, मुट्ठी की रेत सा फिसलता चला गया।। वक्त के फासले बढ़ते गए और हम लोगों ने वक्त के फासले को अपने बीच आने न दिया।।।
और हाँ देवव्रत सर आपका बहुत बहुत धन्यवाद जो इतने सालों बाद आपसे मुलाकात हुई। वो भी आश्चर्यजनक रूप से मेरे छोटे से शहर में। जिसकी कल्पना मैंने नहीं की थी। निश्चित रूप से आपके साथ बिताये ये 5 घंटे सुखद यादें बनकर मानसपटल पर हमेशा बनी रहेंगी।
शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2013
किसी खामोश रस्ते से कोई आवाज़ आती है ... तुम्हें किसने कहा पगली तुम्हें मैं याद करता हूँ ...
अजब
पागल सी लड़की है।।।
मुझे
हर ख़त में लिखती है ...
मुझे
तुम याद करते हो,
तुम्हें
मैं याद आती हूँ,
मेरी
बातें सताती है
मेरी
नींदें जगाती है,
मेरी
आँखें रुलाती है,
दिसंबर
की सुनहरी धुप में अब भी टहलते हो,
किसी
खामोश रस्ते से कोई आवाज़, आती है ...
किसी
खामोश रस्ते से कोई आवाज़, आती है।।।।
ठिठरती सर्द
रातों में तुम अब भी छत पे जाते हो ,
फलक
के सब सितारों को, मेरी बातें सुनाते हो,
किताबों
से तेरे इश्क में कोई कमी आई,
या
मेरी याद के शिद्दत से आँखों में, नमी आई।।।
अजब
पागल सी लड़की है।।।
मुझे
हर ख़त में लिखती है ...
जवाबन
उसको लिखता हूँ ...
मेरी
मशरूफियत देखो।।
सुबह
से शाम ऑफिस में, चिराग -ए -उम्र जलता है।।।
फिर
उसके बाद दुनियां की, कई मजबूरियां पांवों में बेड़ियाँ डाल रखती है ...
मुझे
बेफ्रिक चाहत से भरे सपने नहीं दीखते,
टहलने
जागने रोने की मोहलत ही नहीं मिलती ...
सितारों
से मिले अरसा हुआ,
नाराज
हूँ शायद,किताबों से शगफ़ मेरा, अभी वैसे ही कायम है,
फर्क
इतना पड़ा है अब, उन्हें अरसे में पढता हूँ।।।।
तुम्हें
किसने कहा पगली ...तुम्हें मैं याद करता हूँ ...
मै
खुद को भुलाने की मुसलसल जुश्त्जू में हूँ,
तुम्हें
मैं याद आने की मुसलसल जुश्त्जू में हूँ।।।
मगर
ये जुश्त्जू मेरी बहुत नाकाम रहती है,
मेरे
दिन रात में अब भी, तुम्हारी शाम रहती है,
मेरे
लब्ज़ों की हर माला तुम्हारे नाम रहती है।।।
तुम्हें
किसने कहा पगली, तुम्हें मैं याद करता हूँ ...
पुरानी
बात है जो लोग अक्सर गुनगुनाते हैं,
उन्हें
हम याद करते हैं, जिन्हें हम भूल जाते हैं।।।
अजब
पागल सी लड़की है।।।
मेरी
मशरूफियत देखो,
तुम्हें
दिल से भुलायुं तो तेरी याद आये ना।।
तुम्हें
दिल से भुलाने की मुझे फुर्सत नहीं मिलती,
और
इस मशरूफ जीवन में, तुम्हारे ख़त का एक जुमला ...
तुम्हें
मैं याद आती हूँ।।।।।
मेरे
चाहत की शिद्दत में कमी होने नहीं देता,,,
बहुत
रातें जगाता है,मुझे सोने नहीं देता।।।
तो
अगली बात ख़त में ये जुमला नहीं लिखना ...
अजब
पागल सी लड़की है,
मुझे
फिर भी ये लिखती है ....
मुझे
तुम याद करते हो।।।।
तुम्हें
मै याद आती हूँ ....
धन्यवाद ...
मंगलवार, 6 सितंबर 2011
बेनकाब हुई राजनीतिक पार्टियां

भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में अभी आधी जीत हुई है. सरकार ने आन्दोलन को कुचलने की लाख कोशिश की, पर जनाक्रोश के आगे उसे झुकना पड़ा. इस पूरे आन्दोलन के दौरान सभी राजनीतिक पार्टियों का असली चेहरा भी लोगों ने देख लिया. आन्दोलन के दौरान सत्ता पक्ष का बदलता रंग देखने लायक था. प्रधानमंत्री द्वारा अन्ना को लिखी गई चिट्ठी से साफ़ हो गया था कि सरकार इस मुद्दे को राजनीतिक दांव पेंच में उलझाना चाहती है. किसी भी दल ने जन लोकपाल बिल का खुलकर समर्थन नहीं किया.
सवाल ये है कि आखिर सरकार चाहती क्या है? क्या सरकार जनता से परे है? राजनीतिक से प्रेरित इस हद तक साजिश की गई कि अन्ना पर ही भ्रष्टाचार के आरोप लगा दिए गए. सरकार भूल गई कि वह अन्ना टीम को नहीं, बल्कि सवा सौ करोड़ जनता को बेवकूफ बना रही है.
इसका दूरगामी परिणाम उन्हें चुनावों के दौरान भुगतना पड़ेगा. कोई भी राजनीतिक पार्टी भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के मूड में नहीं है, वरना राजनेताओं को घोटाला करने का मौका कहां मिलेगा.
दैनिक जागरण, रांची (30 अगस्त 2011) में अन्ना का आन्दोलन और उसकी परिणति पर बहस कॉलम में प्रकाशित
धन्यवाद...
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