शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

बिहार की गुलाम पत्रकारिता....

बिहार में विकास के नाम पर एक केऔस नज़र आता है। जगह जगह गड्ढे खुले पड़े हैं। जो परियोजनाएं एक दो साल में पूरी हो जानी चाहिए थी वो लम्बी और लम्बी खींचती जा रही है। ट्रैफिक की समस्या लगातार चिंता का विषय बनती जा रही है। मुजफ्फपुर के बीच बाज़ार में आधा बना पुल विकास योजना को मुंह चिढा रहा है। नीतीश राज में कई ऐसी संस्थाओं और कम्पनियों को भी परियोजना आवंटित की गई जिनके पास दक्षता नहीं थी। आख़िर क्यों? कहीं उन लोगों का सरकार से कोई रिश्ता तो नही...?
रिश्ता सिर्फ़ खून के ही नहीं होते हैं। दिल, दिमाग, मतलब, सियासत और मजबूरी के रिश्ते भी हो सकते हैं। अगर रिश्ते है तो फ़िर मीडिया ने एक निष्पक्ष प्रहरी की तरह उनका खुलासा क्यों नहीं किया ? नीतीश की अंधभक्ति में जुटा मीडिया ख़राब पहलुओं पर सवाल खड़े क्यों नहीं कर रहा है? क्या अचानक बिहार के सभी भ्रष्ट अफसर ईमानदार हो गए हैं? क्या एक ही झटके में वहां की सारी बुराई ख़त्म हो गई है...?
इन सवालों को उठाया है बिहार से ही प्रकाशित एक अख़बार ने। इनकी माने तो बिहार की पत्रकारिता गुलाम हो गई है। इनके इस तर्क के पीछे कुछ ठोस आंकड़े भी है। मसलन सबसे पहले बात करते हैं लालू और नीतीश की मीडिया मैनेजमेंट की। लालू कुछ खास किए बगैर शोर मचने में , ठेठ गँवाई अंदाज़ से लोगो को आकर्षित करने में माहिर हैं। नीतीश कुछ करके भी सही वक्त तक चुप रहना जानते हैं। लालू का कहना है विकास से चुनाव नहीं जीता जा सकता। जबकि नीतीश विकास के मुद्दों पर खुल कर बात करते हैं। यही सोच बिहार में मीडिया को लुभा रही है। शून्य से आगे की गिनती की ओर बढ़ती नीतीश सरकार को तबज्जो देने में मीडिया भी अपने सरोकार भूलती जा रही है। अख़बार का कहना है की जब नीतीश में सामंती प्रवृति लालू से कम नहीं, तो फ़िर राज्य के ज्यादातर पत्रकार उनके प्रवक्ता की भूमिका में क्यों हैं?
ये सही है की विकास को तरसते बिहार में कुछ सकारात्मक बदलाव हुए हैं। लालू और राबडी के शासन काल में गुंडे हीरो बन गए। माफिया राज़ करने लगे। भूख और गरीबी में कोई कमी नहीं आई। पलायन तेज़ी से बढ़ा। नीतीश के आने के बाद इन नकारात्मक प्रवृति में यकीनन कमी आई है। सुरक्षा का अहसास भी बढ़ा है। लेकिन बदलाव उतना अधिक नहीं जितना बढ़ा चढा कर पत्रकार महोदय द्वारा परोसा जा रहा है।
पत्रकारों से पूछना चाहिए की कुछ संगीन अपराधों में कमी का मतलब क्या निकाला और चाहिए की राज्य में शान्ति बहाल हो गई है। अगर उनकी बात सही है तो फ़िर राज्य में हत्या, बलात्कार, लूट के मामले बंद हो गए होंगे? तो जनाब ज़रा इन आंकडों पर गौर फरमाइए। २००५ में राज्य में १०४७७८ आपराधिक मामले दर्ज हुए थे। वही २००८ में ये संख्या बढ़ कर १३०६९३ हो गई। २००५ में हत्या के ३४२३ मामले के मुकाबले २००८ में ये संख्या ३०२९ रही है। हिंसा और बलात्कार के मामले उतने नहीं बढे हैं। जहाँ तक अपराधियों को जेल भेजने का मामला है उसका भी खास पहलू है। लालू राज़ के वक्त आतंक का पर्याय बन चुके अपराधी सलाखों के पीछे हैं। लेकिन इन दिनों इमोशनल हो चुके पत्रकार बन्धु से सवाल है की क्या सभी अपराधी जेल के अन्दर हैं? तो फ़िर अनंत सिंह, प्रभुनाथ सिंह, सूरजभान सिंह, विजय कृष्ण जैसे अपराधी छवि के लोग क्यों आजाद घूम रहे हैं। मीडियाकर्मी क्या आपको नहीं लगता की सज़ा दिलवाने में नीतीश सरकार का रवैया बहुत सलेक्टिव रहा है। उनकी इस कमजोरी पर चोट करने की जगह सिर्फ़ और सिर्फ़ तारीफ करना कहाँ तक उचित सही है...?
मीडिया का काम है शीशे की तरह पारदर्शी होना। कम से कम बिहार की पत्रकारिता पर दाग ना लगाइए। समाज को सही दिशा और दशा का संदेश पहुँचने की बजाय भ्रमित मत कीजिये। कम से कम इस पत्रकारिता को गुलाम मानसिकता से ऊपर उठाइए। मीडिया का चेहरा ढकने की बजाय उसे और मजबूत बनाइये। बिहार की छवि दुनिया में अच्छा बनाइये ना की राज्य सरकार की। हमने तो बस एक पहल की है पत्रकार महोदय के लिए .. कम से कम अपने पत्रकारिता मकसद को ना भूले और वर्षों से चले आ रहे इस संदेश को लोगो के बीच ना जाने दे की " पत्रकारिता मिशन से प्रोफेशन और अब बिजनेस बन चुका है। "
धन्यवाद...।