कहाँ तक सफल रहा... "इक लफ्जे मोहब्बत का अदना सा फ़साना है।
सिमटे तो दिल आशिक, फैले तो ज़माना है।
आंसू तो बहुत से है आँखों में जिगर लेकिन,
बिंध जाये सो मोती है रह जाये तो दाना है।
ये इश्क नहीं आसां इतना ही समझ लीजे,
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है."
सिमटे तो दिल आशिक, फैले तो ज़माना है।
आंसू तो बहुत से है आँखों में जिगर लेकिन,
बिंध जाये सो मोती है रह जाये तो दाना है।
ये इश्क नहीं आसां इतना ही समझ लीजे,
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है."
ये वक्त न खो जाये बस आज ये हो जाये। मैं तुझ में समां जाऊँ तू मुझमे सिमट जाये। ये बेखुदी कैसे पनपती है। हवा संदेशा लेकर आती है तो उस सरसराहट से अपनापन कैसे हो जाता है। जिस्म तो खुदा ने पैदा किया पर रूह पर किसी एहसास का असर कैसे हो जाता है। कोई अच्छा लगने लगता है, कोई प्यारा लगने लगता है तो लोग इसे प्यार, इश्क, मोहब्बत, लव वगैरह वगैरह का नाम देने लगते है। जज्बातों का सयानापन, चौकन्नी निगाहें , बदन में सिरसिराहट, किसी काम में मन ना लगना । हमेशा ही 'उनके' ख्यालो में खोने रहना। पढने बैठो तो पन्नो पर अक्स उभरकर बातें करने लगना।
एक बदली सी दुनिया दुनिया जो निहायत ही अपनी रौ में रंगी चली जा रही हो। जिसमे दूसरे की दखलन्दाजी बर्दाश्त नहीं। अपने शुक्रगुजार ही सबसे बड़े दुश्मन लगने लगते हैं। इनकी आँखों में नींद कहाँ होती है। वो कहते है ना- "पल भी युग बन जाता है नहीं पता थी ये लाचारी, अब तो नींद नहीं आएगी, देख सिरहाने याद तुम्हारी।" जिन्हें प्रेम की रवानी पता है और जिन्हें लगन लगती है तो शब्द और सोच मिलकर गढ़ने लगते हैं। कविता न्यारी और प्रीत पगे भावना उतर आते है कागज़ पर। जीवन बन जाता है कैनवास और चित्र रंगों में ढलने लगता है लव बर्ड की यादो का अंतहीन सिलसिला।
इन्ही नाज़ुक मामले पर किसी मशहूर शायर ने लिखा है-
"गुलशन की फकत फूलो से नहीं कांटो से भी मुहब्बत होती है।
इस दुनिया में जीने के लिए गम की भी जरूरत होती है।
इ वैइज़-ऐ-नादाँ करता है.एक क़यामत का चर्चा,
यहाँ रोज़ निगाहें मिलती है यहाँ रोज़ क़यामत होती है। "
इनका कहना है की प्रेम किसी हाट में नहीं बिकता । ये मिलन है एहसासों का, तिजारत नहीं। ये मीठी बगियाँ की खट्ठी अमियाँ है । लेकिन जब आप प्यार में पागल जोड़ो से ये सुने की "प्यार कब किसका पूरा होता है जब प्यार का पहला अक्षर ही अधुरा होता है"। तो समझिये इनकी मोहब्बत के कल्पनाओ की उडान पर पहरेदारी शुरू हो गई है और तब शुरू होता है - भावनाओ के उन्माद की उलझनें। मेरी समझ से इन उलझनों की साइकोलोजी भी थोडी अलग है। शायद आधुनिक प्यार में भौतिकता हावी है। समय हर पग पर हमें तोड़ता है। एक्सपेक्टेशन का दौर हर एक को अपनी ओर खींचता है। नज़र अपनी अपनी होती है और तलाश अपनी अपनी।
इसी पर मेरे एक मित्र ने लिखा है-
"प्यार में अब कहाँ वो शरारत रह गई।
अब कहाँ वो छुअन वो हरारत रह गई।
लैला और शिरी के किस्से पुराने हो चले ,
अब कहाँ वो शोखियाँ वो नजाकत रह गई,
प्यार किया जैसे एहसान हो भला,
शुक्रिया तो गया शिकायत रह गई।
नवाब जी की गाड़ी अब छूटती नहीं,
कहाँ वो तहजीब वो नफासत रह गई।
मोहब्बत के अच्छे दाम मिलते कहाँ,
वक्त के बाज़ार में ऐसी तिजारत रह गई।"
शायद इन शब्दों से मेरे मित्र कहना चाहते है की मीरा-कबीर, लैला-मजनू, शिरी-फरहाद का प्यार मोबाइली मोहब्बत और लैपटॉप लव से अलग था। ऐसा प्यार जो सच्चा है। जिसमें कोई दगा या बेवफाई नहीं। ना कोई वादा ना कोई इरादा है। ना कोई पार्टी और ना गिफ्ट का हिसाब है। मतलब साफ है आज के दौर की तरह उनका प्यार कैल्कुलेतेड लव नहीं है।
मेरी समझ से हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए की प्यार की परिणति हमेशा मिलन ही नहीं होती है। प्यार में फ़ना हो जाना भी इसी साइकोलोजी का एक हिस्सा नहीं है क्या। किसी के वास्ते हर गम को भुलाकर मुस्कुराना क्या प्यार नहीं। अपने प्यार से बिछरने के बाद ताउम्र उसकी याद में खुद को भुला देना भी प्यार है। प्यार तो बस एक सुखद एहसास है। जिसका कोई नाम नहीं हो सकता ना ही कोई बंधन।
इसलिए किसी की नज़र से देखने पर जब ख़ुद को दुनिया का सबसे खुशनसीब समझने लगे दिल। किसी की तकलीफ देखकर रो पड़े दिल। किसी के लिए जीना और मर जाने को चाहे दिल तो समझिये इस वैलेनटाइन डे पर आप किसी की प्यार भरी नज़रो से घायल हो चुके है। सेंट वैलेनटाइन के प्यार के असली जज्बातों की पगडण्डी पर चलना शुरू कीजिये और प्यार के इस एक दिनी उत्सव पर हम आप भी इसी रंग में रंग जाइये।
धन्यवाद....